ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राविष्णू
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ वा॒मश्वा॑सो अभिमाति॒षाह॒ इन्द्रा॑विष्णू सध॒मादो॑ वहन्तु। जु॒षेथां॒ विश्वा॒ हव॑ना मती॒नामुप॒ ब्रह्मा॑णि शृणुतं॒ गिरो॑ मे ॥४॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । अश्वा॑सः । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽसहः॑ । इन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । स॒ध॒ऽमादः॑ । व॒ह॒न्तु॒ । जु॒षेथा॑म् । विश्वा॑ । हव॑ना । म॒ती॒नाम् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । शृ॒णु॒त॒म् । गिरः॑ । मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वामश्वासो अभिमातिषाह इन्द्राविष्णू सधमादो वहन्तु। जुषेथां विश्वा हवना मतीनामुप ब्रह्माणि शृणुतं गिरो मे ॥४॥
स्वर रहित पद पाठआ। वाम्। अश्वासः। अभिमातिऽसहः। इन्द्राविष्णू इति। सधऽमादः। वहन्तु। जुषेथाम्। विश्वा। हवना। मतीनाम्। उप। ब्रह्माणि। शृणुतम्। गिरः। मे ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं राजानं के प्राप्य किं कुर्वन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्राविष्णू इव सभासेनेशौ ! वां येऽश्वासोऽभिमातिषाहः सधमाद आ वहन्तु तेषां मतीनां विश्वा हवना ब्रह्माणि जुषेथां मे गिरश्चोप शृणुतम् ॥४॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (वाम्) युवाम् (अश्वासः) महान्तः (अभिमातिषाहः) येऽभिमानयुक्ताञ्छत्रून् सोढुं शक्नुवन्ति (इन्द्राविष्णू) वायुसूर्य्यौ (सधमादः) समानस्थानानि (वहन्तु) (जुषेथाम्) (विश्वा) सर्वाणि (हवना) दातुमादातुमर्हाणि (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (उप) सामीप्ये (ब्रह्माणि) धनानि (शृणुतम्) (गिरः) वाणीः (मे) मम ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यदि धीमन्तो बलिष्ठाः शत्रुबलसोढारो जनास्त्वां प्राप्नुयुस्तर्हि सर्वमैश्वर्यं विद्यां च जगति प्रसारयन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उस राजा को कौन प्राप्त होकर क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्राविष्णु) वायु और सूर्य के तुल्य वर्त्तमान सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों जो (अश्वासः) महात्माजन (अभिमातिषाहः) अभिमानयुक्त शत्रुओं को सह सकते हैं वे (सधमादः) समान स्थान को (आ, वहन्तु) प्राप्त करें उन (मतीनाम्) मनुष्यों के (विश्वा) सब (हवना) देने लेने योग्य (ब्रह्माणि) धनों को (जुषेथाम्) सेवो और (मे) मेरी (गिरः) वाणियों को भी (उप, शृणुतम्) समीप में सुनो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! यदि बुद्धिमान्, अतीव बलवान् और शत्रुओं के बल के सहनेवाले मनुष्य आपको प्राप्त होवें तो वे सब ऐश्वर्य्य और विद्या को संसार में विस्तारें ॥४॥
विषय
ऐश्वर्य और जनसंघशक्ति अर्थात् कोश और दण्डाध्यक्षों को उपदेश ।
भावार्थ
हे (इन्द्राविष्णू) ऐश्वर्यवन् ! राजन्, हे विष्णो ! प्रजा में व्यापक संघशक्ति के स्वामिन् ! (ताम् ) आप दोनों को ( अभिमाति-सहः ) अभिमानी शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ, (अश्वासः ) घुड़सवार वीर पुरुष ( सध-मादः ) एक साथ प्रसन्न होकर ( वहन्तु ) धारण करें । आप दोनों (मतीनां ) मननशील विद्वानों के ( विश्वा) समस्त (हवना) ग्रहण करने योग्य वचनों और पदार्थों का ( जुषेथाम् ) प्रेम से सेवन करो और ( मे ) मेरे तथा उन विद्वानों के ( ब्रह्माणि ) वेदोक्त मन्त्रों और ( गिरः) वाणियों को ( उप शृणुतम् ) शिष्यवत् ध्यानपूर्वक श्रवण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राविष्णू देवते ।। छन्दः – १, ३, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ८ त्रिष्टुप् । ५ ब्राह्म्युणिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'अभिमातिषाहः, सधमदः ' अश्वासः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्राविष्णू) = इन्द्र और विष्णु, शक्ति व उदारता के दिव्य भावो! (वाम्) = आप (अश्वासः) = हमारे ये इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमारे लिये प्राप्त करायें। जो इन्द्रियाश्व अ(भिमातिषाहः) = अभिमान आदि शत्रुओं को कुचलनेवाले हैं तथा (सदमादः) = परस्पर मिलकर प्रीतिपूर्वक कार्यों को करनेवाले हैं। ज्ञानेन्द्रियों से दिये गये ज्ञान के अनुसार कर्मेन्द्रियों के कर्म चलते हैं तो ये इन्द्रियाश्व हमारे लिये शक्ति व उदारता आदि दिव्य भावों को प्राप्त करानेवाले होते हैं । [२] हे इन्द्र और विष्णु ! आप (मतीनाम्) = मननपूर्वक स्तुति करनेवालों के (विश्वा हवना) = सब पुकारों को (जुषेथाम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करो। अर्थात् ये शक्ति व उदारता के उपासक लोग सदा मननपूर्वक प्रभु की प्रार्थना करनेवाले हों और (मे) = मेरी (गिरः) = ज्ञान की वाणियों को तथा (ब्रह्माणि) = मेरे से उच्चरित इन सत्यवाणियों को [ब्रह्मन्-truth] (उपशृणुतम्) = सुनो । इन्द्र और विष्णु का उपासक सदा ज्ञानप्रवण व सत्य वक्ता होता है।
भावार्थ
भावार्थ- शक्ति व उदारता की आराधना, इनका धारण, हमारी इन्द्रियों को शत्रुओं से अनाक्रान्त बनाता है। यह आराधना हमें प्रार्थनामय, ज्ञानप्रणव व सत्य वक्ता बनाती है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जर बुद्धिमान, अत्यंत बलवान व शत्रूंचे बल सहन करणारी माणसे तुला मिळतील तर ती संपूर्ण ऐश्वर्य व विद्या जगात प्रसारित करतील. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Vishnu, leaders of the world vibrant as wind and brilliant as light of the sun, may the greatest and fastest challengers of want and enmity escort you to the joyous fellowship of the world. There share the offers, invitations and common wealths of the peoples of the world, and then listen to my voices of exhortation too.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do men do after approaching the king-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Council and Commander-in-Chief of the army! you who are like the air and the sun, serve with love all the wealth that is worth-giving and taking, belonging to those great heroes, who are able to overcome all haughty enemies and take you to the desired place together. Listen to my words attentively.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king ! if wise and mighty persons, who are able to subdue even the haughty enemies, come to you, they can spread all knowledge and prosperity in the world.
Foot Notes
(अश्वासः) महान्तः । = Great (अभिमातिषाहः) येऽभिमानयुक्ताञ्छत्रुन् सोढुं शक्नुवन्ति । अभिमातिषाहः संवृष्ठमान्यभिमातिषाह इति संरताक्ति पाप्मसह इत्येतत् ( S. Br 7, 3, 1, 46 ) षह शक्तौ (काशकृतनधातुपाठे दिवा 3, 17)। = Who can subdue even the haughty enemies. (हवना) दातुमादातुमर्हाणि | = Worth giving and Worth-taking. (ब्रह्माणि) धनानि । ब्रह्मेति धननाम (NG 2, 10)। = Wealth of various kinds.
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