ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राविष्णू
छन्दः - ब्राह्म्युष्निक्
स्वरः - ऋषभः
इन्द्रा॑विष्णू॒ तत्प॑न॒याय्यं॑ वां॒ सोम॑स्य॒ मद॑ उ॒रु च॑क्रमाथे। अकृ॑णुतम॒न्तरि॑क्षं॒ वरी॒योऽप्र॑थतं जी॒वसे॑ नो॒ रजां॑सि ॥५॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । तत् । प॒न॒याय्य॑म् । वा॒म् । सोम॑स्य । मदे॑ । उ॒रु । च॒क्र॒मा॒थे॒ इति॑ । अकृ॑णुतम् । अ॒न्तरि॑क्षम् । वरी॑यः । अप्र॑थतम् । जी॒वसे॑ । नः॒ । रजां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राविष्णू तत्पनयाय्यं वां सोमस्य मद उरु चक्रमाथे। अकृणुतमन्तरिक्षं वरीयोऽप्रथतं जीवसे नो रजांसि ॥५॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राविष्णू इति। तत्। पनयाय्यम्। वाम्। सोमस्य। मदे। उरु। चक्रमाथे इति। अकृणुतम्। अन्तरिक्षम्। वरीयः। अप्रथतम्। जीवसे। नः। रजांसि ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥
अन्वयः
हे राजप्रजाजनौ ! याविन्द्राविष्णू सोमस्य मदे तदन्तरिक्षं पनयाय्यं कुरुतस्तौ वामुरु चक्रमाथे वरीयोऽप्रथतं तेन नो जीवसे रजांस्यकृणुतम् ॥५॥
पदार्थः
(इन्द्राविष्णू) वायुसूर्यौ (तत्) (पनयाय्यम्) प्रशंसनीयम् (वाम्) युवाम् (सोमस्य) ऐश्वर्य्यस्य (मदे) हर्षे जाते सति (उरु) बहु (चक्रमाथे) कामयथः (अकृणुतम्) कुर्यातम् (अन्तरिक्षम्) भूमिसूर्ययोर्मध्यस्थमाकाशम् (वरीयः) अतिशयेन वरम् (अप्रथतम्) प्रख्यापयतम् (जीवसे) जीवितुम् (नः) अस्माकमस्मान् वा (रजांसि) ऐश्वर्याणि ॥५॥
भावार्थः
हे राजप्रजाजना ! यथा यज्ञेन शोधिते वायुविद्युतौ सर्वं चराचरं जगत्प्रशंसनीयमरोगं कुरुतस्तथा विधाय तेनास्माकमैश्वर्यं जीवनं चाधिकं कुर्वन्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजा और प्रजाजनो ! जो (इन्द्राविष्णू) वायु और सूर्य्य (सोमस्य) ऐश्वर्य्य का (मदे) आनन्द प्राप्त होने पर (तत्) उस (अन्तरिक्षम्) भूमि और सूर्य्य के बीच की पोल को (पनयाय्यम्) प्रशंसा के योग्य करते हैं उनकी (वाम्) तुम (उरु) बहुत (चक्रमाथे) कामना करो और (वरीयः) अत्यन्त श्रेष्ठ को (अप्रथतम्) विख्यात करो उससे (नः) हम लोगों के (जीवसे) जीवन को तथा (रजांसि) ऐश्वर्य्यों को (अकृणुतम्) सिद्ध करो ॥५॥
भावार्थ
हे राजप्रजाजनो ! जैसे यज्ञ से शोधे हुए वायु और बिजुली समस्त चराचर जगत् को प्रशंसा के योग्य और नीरोग करते हैं, वैसे विधान कर उससे हमारे ऐश्वर्य्य और जीवन को अधिक करो ॥५॥
विषय
राजा विद्वान् दोनों के पराक्रम
भावार्थ
हे ( इन्द्राविष्णू ) ऐश्वर्यवन् ! हे व्यापक सामर्थ्यवन् राजन्, विद्वन् ! ( वां ) आप दोनों का ( तत् ) वह ( पनयाय्यं ) अति प्रशंस नीय कार्य है कि आप दोनों ( सोमस्य मदे) अन्न के समान ही ऐश्वर्य युक्त राष्ट्र के द्वारा तृप्ति और हर्षलाभ करने पर, ( उरु अन्तरिक्षम् ) विशाल अन्तरिक्ष को सूर्य वायु के समान स्वभूमियों के बीच के प्रदेश में भी (उरु चक्रमाथे) बहुत वेग से जाते हो, और पराक्रम करते हो, उसको ( वरीय: अकृणुतम् ) विस्तृत, और अति उत्तम बनाओ और ( नः ) हम प्रजाओं को ( जीवसे) दीर्घ और सुख युक्त जीवन के लिये ( रजांसि अकृणुतम् अप्रथतम् ) नाना ऐश्वर्यों की उत्पत्ति और वृद्धि करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राविष्णू देवते ।। छन्दः – १, ३, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ८ त्रिष्टुप् । ५ ब्राह्म्युणिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'शक्ति व उदारता' की उपासना का लाभ
पदार्थ
[१] हे (इन्द्राविष्णू) = इन्द्र और विष्णु, शक्ति व उदारता के भावो! (वाम्) = आपका (तत्वह) = कर्म (पनयाय्यम्) = स्तुति के योग्य है कि (सोमस्य मदे) = सोम के मद में, सोमरक्षण से जनित उल्लास में आप (उरु चक्रमाथे) = विशाल पराक्रम को करते हो। आप इन्द्रियों, मन व बुद्धि तीनों को ही बड़ा सुन्दर बनाते हो। [२] आप (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (वरीयः) = विशालतर- खूब विशाल (अकृणुतम्) = करते हो और (नः) = हमारे जीवसे उत्कृष्ट जीवन के लिये रजांसि सब लोकों को (अप्रथतम्) = खूब विस्तृत कर देते हो । अर्थात् सब अंग-प्रत्यंगों को विकसित शक्तिवाला बनाते हो ।
भावार्थ
भावार्थ- शक्ति व उदारता की आराधना सोमरक्षण द्वारा विशाल पराक्रम की जनक होती है। इससे हृदय विशाल बनता है, तथा सब अंग-प्रत्यंग विकसित शक्तिवाले होते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राज प्रजाजनांनो ! जसे यज्ञाने संशोधित केलेले वायू व विद्युत संपूर्ण जगाला प्रशंसा करण्यायोग्य व निरोगी बनवितात तसे विधान करून आमचे ऐश्वर्य व जीवन वाढवा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Vishnu, lord omnipotent and lord omnipresent of generosity, admirable is that act of yours by which, in the ecstasy of creation, you conceive, create and expand the excellent middle region of the universe between heaven and earth, and then for the sustenance of our life you create and expand other regions of earth and space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they do again-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king and their subjects ! the air and the sun make the firmament admirable, when you are delighted by prosperity all around, you also desire them and make the best use. Do proclaim, what is the best thing. For our long life, make us prosperous.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king and their subjects as the air and electricity, when purified by the Yajna (non-violent sacrifice ), make the world, animate and inanimate, admirable and healthy, so you should do like that and by so doing increase our prosperity and span of life.
Foot Notes
(पनयाय्यम्) प्रशंसनीयम् । पन-व्यवहारे स्तुतौ च (भ्वा.) अन्न स्तुत्यर्थः स्तुतिः प्रशंसा । = praise-worthy. (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य | (सोमस्य) षु-प्रसवैश्वयोः (भ्वा.) अत्र ऐश्वर्यार्थः । = Of wealth or prosperity. (राजांसि) ऐश्वर्व्याणि । रथ इति पदनाम (NG4, 1 ) पथ-गतौ गतेस्थिष्वर्थेषु प्राप्त्यर्थमादाय सुखहर्ष प्रापकम् ऐश्वर्यम् अथवा रजं-रागे इति धातोः रजः शब्द प्रमाण रांगम् उत्पादयतोति । रज:-ऐश्वर्यम् । = Wealth of all kinds.
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