ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 6
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राविष्णू
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑विष्णू ह॒विषा॑ वावृधा॒नाग्रा॑द्वाना॒ नम॑सा रातहव्या। घृता॑सुती॒ द्रवि॑णं धत्तम॒स्मे स॑मु॒द्रः स्थः॑ क॒लशः॑ सोम॒धानः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । ह॒विषा॑ । व॒वृ॒धा॒ना । अग्र॑ऽअद्वाना । नम॑सा । रा॒त॒ऽह॒व्या॒ । घृता॑सुती॒ इति॒ घृत॑ऽआसुती । द्रवि॑णम् । ध॒त्त॒म् । अ॒स्मे इति॑ । स॒मु॒द्रः । स्थः॒ । क॒लशः॑ । सो॒म॒ऽधानः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राविष्णू हविषा वावृधानाग्राद्वाना नमसा रातहव्या। घृतासुती द्रविणं धत्तमस्मे समुद्रः स्थः कलशः सोमधानः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राविष्णू इति। हविषा। ववृधाना। अग्रऽअद्वाना। नमसा। रातऽहव्या। घृतासुती इति घृतऽआसुती। द्रविणम्। धत्तम्। अस्मे इति। समुद्रः। स्थः। कलशः। सोमऽधानः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशौ सम्पाद्य किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे ऋत्विग्यजमानौ ! यथा हविषा वावृधानाग्राद्वाना नमसा रातहव्या घृतासुती इन्द्राविष्णू अस्मे द्रविणं धत्तस्तथा युवां धत्तं सोमधानः समुद्रः कलश इव स्थः ॥६॥
पदार्थः
(इन्द्राविष्णू) वायुसूर्य्यौ (हविषा) हुतेन द्रव्येण (वावृधाना) शुद्ध्या वर्द्धमानौ वर्धकौ (अग्राद्वाना) येऽग्रमदन्ति तद्विभाजकौ (नमसा) अन्नादिना (रातहव्या) दातव्यदानौ (घृतासुती) घृतेन समन्ताद् सुतिः प्रेरणं ययोस्तौ (द्रविणम्) धनं यशश्च (धत्तम्) (अस्मे) अस्मासु (समुद्रः) सम्यगापो द्रवन्ति यस्मिँस्तदन्तरिक्षं मेघो वा (स्थः) भवथः (कलशः) कलश इव जलेन पूर्णः (सोमधानः) सोमाद्योषधिगणा धीयन्ते यस्मिन् सः ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे ऋत्विग्यजमानादयः ! सुगन्धिघृतादिहोमेन वायुसूर्य्यौ शुद्धौ कृत्वा सर्वेषां भाग्यं सम्पाद्य सर्वेषां सुखवर्धका भवन्तु ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उन्हें कैसे सिद्ध कर क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे ऋत्विज् और यजमानो ! जैसे (हविषा) होमे हुए पदार्थ से (वावृधाना) निरन्तर शुद्धि से बढ़े वा बढ़ाने (अग्राद्वाना) अग्रभाग के भोगने को विभाग करनेवाले और (नमसा) अन्नादि पदार्थ से (रातहव्या) देने योग्य को देनेवाले (घृतासुती) सब ओर से जिनकी घी से प्रेरणा होती वे (इन्द्राविष्णू) वायु और सूर्य (अस्मे) हम लोगों में (द्रविणम्) धन और यश को धरते हैं, वैसे तुम (धत्तम्) धरो तथा (सोमधानः) और सोमादि ओषधि जिसमें स्थापन की जाती हैं और (सुमद्रः) अच्छे प्रकार जल तरंगे लेते हैं जिसमें वह अन्तरिक्ष वा मेघ (कलशः) घट के समान वर्त्तमान है, उसके समान (स्थः) होते हो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे ऋत्विग् और यजमान आदि जनो ! सुगन्धि और घृतादि पदार्थों के होम से वायु और सूर्य को शुद्ध कर सब के भाग्य की सिद्धि कर सब के सुख के बढ़ानेवाले होओ ॥६॥
विषय
ऐश्वर्य की वृद्धि और उत्पत्ति का उपदेश ।
भावार्थ
हे (इन्द्राविष्णू) ऐश्वर्ययुक्त और व्यापक सामर्थ्यवान् पुरुषो ! आप दोनों ( हविषा ) ‘हवि’ अर्थात् प्रजाजन से ग्रहण करने योग्य कर, और अन्न से ( वावृधाना ) बढ़ते हुए और अन्यों को बढ़ाते हुए ( रातहव्या ) उत्तम अन्नों को सूर्य वा मेघवत् प्रदान करते हुए, ( नमसा ) विनय और शक्ति से ( अग्राद्वाना ) सबसे प्रमुख होकर भोग्य सम्पत्ति को सब में न्यायपूर्वक विभाग करते हुए, (घृतासुती ) सूर्य मेघवत् जल के समान तेज और अन्न आदि को उत्पन्न करते हुए, ( अस्मे द्रविणं धत्तम् ) हमें ऐश्वर्य प्रदान करो । आप दोनों तो ( सोम-धानः ) ऐश्वर्य या खजाने को अपने में रखने वाले ( कलश: समुद्रः ) मुद्रा से अंकित बन्द हुए कलशे के समान पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त एवं हर्षयुक्त, समुद्रवत् रत्नादि के आकर ( स्थः ) होओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राविष्णू देवते ।। छन्दः – १, ३, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ८ त्रिष्टुप् । ५ ब्राह्म्युणिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
अग्राद्वाना
पदार्थ
[१] (इन्द्राविष्णू) = शक्ति व उदारता के दिव्य भावो! (हविषा) = त्यागपूर्वक अदन के द्वारा (वावृधाना) = हमारे अन्दर आप निरन्तर बढ़ते हो । त्यागपूर्वक अदन से 'शक्ति व उदारता' की वृद्धि होती है (अग्राद्वाना) = ये इन्द्र और विष्णु भोजनों से उत्पन्न सर्वाग्रणी [= सर्वश्रेष्ठ] सोम के भक्षण करनेवाले होते हैं, सोम का ये शरीर में ही रक्षण करते हैं। (नमसा रातहव्या) = नमन के साथ ये हवि के देनेवाले हैं। अर्थात् हमें ये नम्रता व यज्ञशीलता को प्राप्त कराते हैं । [२] (घृतासुती) = तेज व दीप्ति को हमारे में ये उत्पन्न करनेवाले हैं। (अस्मे) = हमारे लिये हे इन्द्राविष्णू ! (द्रविणं धत्तम्) = धन को धारण कीजिये। आप (समुद्रः स्थः) = समुद्र की तरह होते हो। आप (सोमधानः कलशः) = सोम के आधारभूत कलश ही हो, अर्थात् आपके द्वारा इस शरीर कलश में सोम का रक्षण होता है।
भावार्थ
भावार्थ– शक्ति व उदारता के भावों की उपासना हमें 'त्याग, नम्रता, यज्ञशीलता' को प्राप्त कराती है और हमारे लिये उत्तम धनों का धारण करती है ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे ऋत्विज व यजमान इत्यादींनो ! सुगंध व घृत इत्यादी पदार्थांचा होम करून वायू व सूर्याला शुद्ध करून सर्वांच्या भाग्याची सिद्धी करून सर्वांचे सुख वाढवा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Vishnu, you are exalted by the oblations of sacrificial havi and thereby you exalt all others. First receivers and consumers of food and homage, you give back every thing finer in return for others. O lords, receiving oblations of ghrta and blessing others with the best of things, bear and bring the wealth and honour of life for us. Be like the sea full of jewels, be like a cask of soma and the ecstasy of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should they be made and what should be done by men-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O priest and the Yajamana (performer of the yajna)! as the air and the sun purified and increasing men in health, by oblations, distributors of what is eaten (by the fire in the form of oblation) givers of what is worth giving, by food materials, impelled by the butter, uphold for us wealth or good reputation, so you should also do. You are like the vessel in which Soma and other invigorating herbs and plants are put -a jar full of water or firmament or cloud from which waters are rained down.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O priest and performer of Yajna ! by performing the yajna in which butter, fragrant and nourishing articles are put as oblations, purify the air and the sun, making all fortunate (by improving their health) be increasers of the happiness of all beings.
Foot Notes
(समुद्र:) सम्यक् आपो द्रवन्ति यस्मिस्तदन्तरिक्ष मेधो वा । समुद्र इति अन्तरिक्षनाम (NG 1, 3 ) = Firmament or cloud from which the waters come down. (घृतासुती) धृतेन समन्ताद् सुतिः प्रेरणं ययोस्तौ । षु प्रसवेश्वर्ययोः अत्र-प्रसवार्थः । प्रसवः प्रेरणा | = Impelled by the butter on all sides.
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