ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 69/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्राविष्णू
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑विष्णू॒ पिब॑तं॒ मध्वो॑ अ॒स्य सोम॑स्य दस्रा ज॒ठरं॑ पृणेथाम्। आ वा॒मन्धां॑सि मदि॒राण्य॑ग्म॒न्नुप॒ ब्रह्मा॑णि शृणुतं॒ हवं॑ मे ॥७॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । पिब॑तम् । मध्वः॑ । अ॒स्य । सोम॑स्य । द॒स्रा॒ । ज॒ठर॑म् । पृ॒णे॒था॒म् । आ । वा॒म् । अन्धां॑सि । म॒दि॒राणि॑ । अ॒ग्म॒न् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । शृ॒णु॒त॒म् । हव॑म् । मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राविष्णू पिबतं मध्वो अस्य सोमस्य दस्रा जठरं पृणेथाम्। आ वामन्धांसि मदिराण्यग्मन्नुप ब्रह्माणि शृणुतं हवं मे ॥७॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राविष्णू इति। पिबतम्। मध्वः। अस्य। सोमस्य। दस्रा। जठरम्। पृणेथाम्। आ। वाम्। अन्धांसि। मदिराणि। अग्मन्। उप। ब्रह्माणि। शृणुतम्। हवम्। मे ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 69; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ दस्रा ! वां यानि मध्वोऽस्य सोमस्य मदिराण्यधांस्यग्मँस्तानीन्द्राविष्णू इव पिबतं तैर्जठरमा पृणेथां पुनर्मे ब्रह्माणि हवं चोप शृणुतम् ॥७॥
पदार्थः
(इन्द्राविष्णू) वायुविद्युताविव (पिबतम्) (मध्वः) मधुरस्य (अस्य) (सोमस्य) सोमाद्योषधिजन्यस्य रसस्य (दस्रा) दुःखक्षयितारौ (जठरम्) उदरम् (पृणेथाम्) प्रपूरयेतम् (आ) (वाम्) युवाम् (अन्धांसि) अन्नानि (मदिराणि) आनन्दकराणि (अग्मन्) प्राप्नुवन्तु (उप) (ब्रह्माणि) पठितानि वेदस्तोत्राणि (शृणुतम्) (हवम्) स्वाध्यायम् (मे) मम ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या औषधैः शरीरस्य रोगान् विद्यासत्सङ्गधर्मानुष्ठानैरात्मनो रोगांश्च निवार्य वायुविद्युद्वद्बलिष्ठा भूत्वा विद्याभ्यासं कृत्वा विद्यार्थिनां परीक्षां कुर्वन्ति ते सर्वेषां दुःखानि निवार्य्याऽऽनन्दं दातुं शक्नुवन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! (दस्रा) दुःख के विनाश करनेवालो (वाम्) तुम दोनों को जो (मध्वः) मधुरगुणयुक्त (अस्य) इस (सोमस्य) सोम आदि ओषधियों से उत्पन्न हुए इस रस के (मदिराणि) आनन्द करनेवाले (अन्धांसि) अन्न (अग्मन्) प्राप्त होवें उनको (इन्द्राविष्णू) वायु और बिजुली के समान (पिबतम्) पिओ और उनसे (जठरम्) उदर को (आ, पृणेथाम्) अच्छे प्रकार भरो फिर (मे) मेरे (ब्रह्माणि) पढ़े हुए वेदस्तोत्रों को और (हवम्) नित्य के वेदपाठ को (उप, शृणुतम्) समीप में सुनो ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य औषधों से शरीर के रोगों को तथा विद्या, सत्सङ्ग और धर्म के अनुष्ठान से आत्मा के रोगों को निवार के वायु और बिजुली के समान बलिष्ठ हो विद्याभ्यास करके विद्यार्थियों की परीक्षा करते हैं, वे सब के दुःखों को निवृत्त कर आनन्द दे सकते हैं ॥७॥
विषय
उक्त सबको अन्न ऐश्वर्य से पेट भरने का उपदेश ।
भावार्थ
( इन्द्रा विष्णू ) शत्रुनाशक ! ऐश्वर्ययुक्त तथा विविध विद्याओं के प्रदान करने वाले बलवान् और ज्ञानवान् पुरुषो ! आप दोनों ( अस्य मध्वः ) उस मधु, अर्थात् मधुर अन्न वा जल, (सोमस्य ) ओषधिरसवत् उत्पन्न वनस्पति और ऐश्वर्य का भी (पिबतं ) पान, भोजन एवं उपभोग करो । इस प्रकार ही ( जठरं ) अपने उदर को ( पृणेथाम् ) पूर्ण करो । ( वाम् ) आप दोनों को ( मदिराणि अन्धांसि ) हर्षजनक नाना प्रकार के जीवनप्रद अन्न ( अग्मन् ) प्राप्त हों, आप दोनों ( मे हवं उप शृणुतम् ) मेरे उत्तम उपदेश का श्रवण करो और ( मे ब्रह्माणि उपशृणुतम् ) मेरे उपदेश किये वेद मन्त्रों का उत्तम ज्ञान श्रवण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्राविष्णू देवते ।। छन्दः – १, ३, ६, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ८ त्रिष्टुप् । ५ ब्राह्म्युणिक् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'इन्द्राविष्णू' का सोमपान
पदार्थ
[१] (इन्द्राविष्णू) = हे शक्ति व उदारता के भावो! (अस्य) = इस (मध्वः) = जीवन को मधुर बनानेवाले (सोमस्य) = सोम का (पिबतम्) = पान करो, शरीर में सोम को सुरक्षित करो। हे (दस्त्रा) = सोमरक्षण द्वारा सब दुःखों का उपक्षय करनेवाले इन्द्र और विष्णु ! आप सोम के द्वारा (जठरम्) = जठर को, उदर को (पृणेथाम्) = पूरित करो। शरीर को सुरक्षित सोम से भरनेवाले होवो। [२] (वाम्) = आपको (मदिराणि) = आनन्द व उल्लास को देनेवाले (अन्धांसि) = आध्यातव्य सोम (आ अग्मन्) = प्राप्त हों । हे इन्द्राविष्णू! आप (मे) = मेरे (ब्रह्माणि) = स्तोत्रों को तथा (हवम्) = पुकार को (उपशृणुतम्) = समीपता से सुननेवाले होइये। अर्थात् मैं स्तवन व प्रार्थना की वृत्तिवाला बनूँ ।
भावार्थ
भावार्थ– शक्ति व उदारता की उपासना हमें सोमरक्षण के योग्य बनाये। यह हमारे अन्दर स्तुति व प्रार्थना की वृत्ति को पैदा करे।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे औषधींनी शरीराचे रोग, विद्या, सत्संग व धर्माच्या अनुष्ठानाने आत्म्याचे रोग नाहीसे करतात तसे वायू व विद्युतप्रमाणे बलवान होऊन, विद्याभ्यास करून विद्यार्थ्यांची परीक्षा करतात, ती सर्व दुःखांना नाहीसे करून आनंद देऊ शकतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra and Vishnu, destroyers of want and suffering, drink of the honey sweets of this soma and quench the hunger and thirst of body, mind and soul. Both of you together, receive the exhilarating food and drinks of life, acknowledge our offers of homage, and listen to my voice of invocation and celebration.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! you who are destroyers of miseries, drink the sweet juice of the Soma and other invigorating herbs, which are delightful to take and like the air and electricity, fill up your belays with them. Then listen attentively to the studies of Vedic hymns and what I have read. (Test me well in my studies).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who remove all diseases of the body by taking proper medicines, the diseases of the soul by Vidya (knowledge); association with good men and observance of Dharma (righteousness), become very mighty like the winds, acquire knowledge well and test their pupils in what they have studied, can drive away the miseries of all and give them joy and bliss.
Foot Notes
(दस्त्रा) दुःखक्ष्यितारौ। दसु-उपक्षये (दिवा.)। = Destroyers of miseries. (अन्धांसि) अन्नानि । अन्धः इत्यननाम (NG 2, 7) = Food of various kinds. (ब्रह्माणि) पठितानि वेदस्तोत्राणि ब्रह्म वै मन्त्रः (S. Br. 7, 1, 1, 5) वेदो ब्रह्म (J. U. Br. 4, 25, 3) ब्रह्म वा ऋक | कौषीतकौ ब्राह्मणे 7, 10)। = Studied Vedic hymns.
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