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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    प्र वो॑ म॒हे म॑हि॒वृधे॑ भरध्वं॒ प्रचे॑तसे॒ प्र सु॑म॒तिं कृ॑णुध्वम्। विशः॑ पू॒र्वीः प्र च॑रा चर्षणि॒प्राः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । वः॒ । म॒हे । म॒हि॒ऽवृधे॑ । भ॒र॒ध्व॒म् । प्रऽचे॑तसे । प्र । सु॒ऽम॒तिम् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । विशः॑ । पू॒र्वीः । प्र । च॒र॒ । च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वो महे महिवृधे भरध्वं प्रचेतसे प्र सुमतिं कृणुध्वम्। विशः पूर्वीः प्र चरा चर्षणिप्राः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। वः। महे। महिऽवृधे। भरध्वम्। प्रऽचेतसे। प्र। सुऽमतिम्। कृणुध्वम्। विशः। पूर्वीः। प्र। चर। चर्षणिऽप्राः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनाः परस्परं किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यथा वयं वो युष्मभ्यमुत्तमान् पदार्थान् प्रयच्छेम तथा यूयं नो महे महिवृधे प्रचेतसे सुमतिं प्र भरध्वमस्मान् पूर्वीर्विशो विदुषीः प्र कृणुध्वम्। चर्षणिप्रास्त्वं राजँस्त्वं न्याये प्र चर ॥१०॥

    पदार्थः

    (प्र) (वः) युष्मभ्यम् (महे) महते (महिवृधे) महतां वर्धकाय (भरध्वम्) (प्रचेतसे) प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य तस्मै (प्र) (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (कृणुध्वम्) (विशः) प्रजाः (पूर्वीः) प्राचीनाः पितापितामहादिभ्यः प्राप्ताः (प्र) (चर) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चर्षणिप्राः) यश्चर्षणीन् मनुष्यान् प्राति व्याप्नोति सः ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्वांसो युष्मदर्थं शुभान् गुणान् पुष्कलमैश्वर्यं विदधति तथा यूयमेतदर्थं श्रेष्ठां नीतिं धत्त ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजप्रजाजन परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जैसे हम लोग (वः) तम्हारे लिये उत्तम पदार्थों को दें, वैसे तुम हम लोगों के (महे) महान् व्यवहार के लिये (महिवृधे) तथा बड़ों के बढ़ने और (प्रचेतसे) उत्तम प्रज्ञा रखनेवाले के लिये (सुमतिम्) सुन्दर मति को (प्र, भरध्वम्) उत्तमता से धारण करो हम लोगों को (पूर्वीः) प्राचीन पिता पितामहादिकों से प्राप्त (विशः) प्रजाजनों को (प्र, कृणुध्वम्) विद्वान् अच्छे प्रकार करो (चर्षणिप्राः) जो मनुष्यों को व्याप्त होता वह राजा आप न्याय में (प्र, चर) प्रचार करो ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन तुम लोगों के लिये शुभगुण और पुष्कल ऐश्वर्य विधान करते हैं, वैसे तुम इनके लिये श्रेष्ठ नीति धारण करो ॥१०॥

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    विषय

    राजा और विद्वान् के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! आप लोग ( वः ) अपने में से ( महि वृधे ) बड़ों के बढ़ाने वाले, बड़ों का आदर सत्कार करने वाले, ( महे ) स्वयं गुणों में महान् के आदरार्थ ( प्र भरध्वम्) उत्तम २ पदार्थ प्रस्तुत करो । और (प्र-चेतसे) उत्तम चित्त वाले शिष्य और उत्तम ज्ञान वाले विद्वान के लिये ( सुमतिं ) शुभ मति और उत्तम ज्ञान ( प्र कृणुध्वम् ) अच्छी प्रकार सम्पादन करो । उसको ज्ञान प्राप्त करने के उत्तम से उत्तम साधन प्रदान करो । हे राजन् ! विद्वन् ! ( त्वं ) तू ( चर्षणि-प्राः ) मनुष्यों का धन और विद्या, बल से पूर्ण करने वाला होकर (पूर्वी: विशः ) पिता पितामहादि से प्राप्त प्रजाओं को ( प्र चर ) प्राप्त कर । उसमें अपना अधिकार फैला और हे विद्वन् ! तू उनमें परिव्राजक होकर ज्ञान प्रसार कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः – १ विराड् गायत्री । २,८ गायत्री । ६, ७, ९ निचृद्गायत्री । ३, ४, ५ आर्च्युष्णिक् । १०, ११ भुरिगनुष्टुप् । १२ अनुष्टुप् ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    ज्ञान प्राप्ति के उत्तमोत्तम साधन हों

    पदार्थ

    पदार्थ- हे विद्वान् लोगो! आप लोग (वः) = अपने में से (महि वृधे) = बड़ों के बढ़ानेवाले, (महे) = गुणों में महान् के आदरार्थ (प्र भरध्वम्) = उत्तम पदार्थ प्रस्तुत करो और (प्र-चेतसे) = उत्तम चित्तवाले शिष्य और विद्वान् के लिये (सुमतिं) = उत्तम ज्ञान (प्र कृणुध्वम्) = च्छी प्रकार सम्पादन करो। विद्वन्! (त्वं) = तू (चर्षणि प्राः) = मनुष्यों का विद्या, बल से पूर्ण करनेवाला होकर (पूर्वी: विशः) = पिता, पितामहादि से प्राप्त प्रजाओं को (प्र चर) = प्राप्त कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा को योग्य है कि वह अपने राष्ट्र में विभिन्न विद्याओं में निष्णात उत्तम विद्वानों को नियुक्त करे, जिससे राज्य के विचारशील उत्तम नागरिक विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान से युक्त होकर समृद्ध राष्ट्र का आधार बनें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक तुम्हाला शुभ गुण व ऐश्वर्य देतात तसे तुम्ही त्यांच्याबाबत श्रेष्ठ नीती धारण करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Bear and bring homage, assistance and cooperation and offer positive thoughts and advice to Indra, your leader and ruler. Great is he, promoter of great people and the common wealth, and a leader wide awake with deep and distant foresight. O leader and ruler of the land, be good to the settled ancient people and take care of the farming communities and other professionals so that all feel happy and fulfilled without frustration.

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