ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
त्वं न॑ इन्द्र वाज॒युस्त्वं ग॒व्युः श॑तक्रतो। त्वं हि॑रण्य॒युर्व॑सो ॥३॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । वा॒ज॒ऽयुः । त्वम् । ग॒व्युः । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । त्वम् । हि॒र॒ण्य॒ऽयुः । व॒सो॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं न इन्द्र वाजयुस्त्वं गव्युः शतक्रतो। त्वं हिरण्ययुर्वसो ॥३॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। नः। इन्द्र। वाजऽयुः। त्वम्। गव्युः। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। त्वम्। हिरण्यऽयुः। वसो इति ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स विद्वान् कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे शतक्रतो वसविन्द्र वाजयुस्त्वं गव्युस्त्वं हिरण्ययुस्त्वं नोऽस्माकं रक्षकोऽध्यापको वा भव ॥३॥
पदार्थः
(त्वम्) (नः) अस्माकम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (वाजयुः) वाजं प्रशस्तमन्नं धनं वाऽऽत्मन इच्छति (त्वम्) (गव्युः) गां पृथिवीमुत्तमां वाचं वा कामयमानः (शतक्रतो) असंख्यप्रज्ञ (त्वम्) (हिरण्ययुः) हिरण्यं सुवर्णं कामयमानः (वसो) वासयितः ॥३॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैरिदमेष्टव्यं यो धर्मात्माऽऽप्तो विद्वान् राजाऽध्यापकः परीक्षको वा स सततमुन्नेता स्यात् ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) असंख्यप्रज्ञावान् (वसो) वसानेवाले (इन्द्र) परम ऐश्वर्ययुक्त (वाजयुः) प्रशंसित अन्न वा धन अपने को चाहनेवाले ! (त्वम्) आप (गव्युः) पृथिवी वा उत्तम वाणी की कामना करनेवाले (त्वम्) आप (हिरण्ययुः) सुवर्ण की कामना करनेवाले (त्वम्) आप (नः) हमारी रक्षा करने और पढ़ानेवाले हूजिये ॥३॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को यही इच्छा करनी चाहिये जो धर्मात्मा आप्त विद्वान् राजा अध्यापक वा परीक्षा करनेवाला है सो निरन्तर उन्नति करनेहारा हो ॥३॥
विषय
वीर्यपालक ब्रह्मचारी, व्रज्ञज्ञान पिपासु मुमुक्षु, ऐश्वर्यपालक राजा सब 'सोमपावन्' हैं उनका विवरण, उनका आदर, उनके अधिकार और कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं ) तू ( नः ) हमारे लिये ( वाज-यु: ) अन्न, ज्ञान, बल वेग आदि की कामना करने वाला, (गव्युः) भूमि, इन्द्रिय सामर्थ्य, वाणी आदि चाहने वाला हो । हे ( शतक्रतो ) असंख्य बुद्धि के स्वामिन् ! हे ( वसो ) सब में बसने और बसाने हारे ! ( त्वं ) तू ( हिरण्ययुः ) ऐश्वर्य एवं हित, रमणीय कार्य को चाहने वाला हो । अथवा हे राजन् ! विद्वन् ! तू हमारा बल, ऐश्वर्य, भूमि, वाणी, सुवर्णादि का स्वामी है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः – १ विराड् गायत्री । २,८ गायत्री । ६, ७, ९ निचृद्गायत्री । ३, ४, ५ आर्च्युष्णिक् । १०, ११ भुरिगनुष्टुप् । १२ अनुष्टुप् ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
राजा वाजयु हो
पदार्थ
पदार्थ - हे (इन्द्र) = राजन् ! (त्वं) = तू (नः) = हमारे लिये (वाज-युः) = अन्न, बल आदि की कामनावाला, (गव्युः) = वाणी आदि चाहनेवाला हो। हे शतक्रतो असंख्यों बुद्धियों के स्वामिन् ! हे (वसो) = सब में बसने हारे! (त्वं) = तू (हिरण्ययुः) = हित कार्य को चाहनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ- सर्वव्यापक परमात्मा जैसे हित एवं रमणीय कार्यों को ही चाहता है, उसी प्रकार राजा को भी भूमि, इन्द्रिय सामर्थ्य और वाणी का चाहनेवाला होकर अन्न, बल आदि का संग्राहक होना चाहिए।
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी ही इच्छा बाळगली पाहिजे की जो धर्मात्मा, विद्वान, राजा, अध्यापक किंवा परीक्षक असेल तो निरंतर उन्नती करणारा असावा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, glorious ruler, you are giver of peace and settlement, you are accomplisher of a hundred yajnic acts of truth, you are giver of victory and progress to us, you are lover of the land and culture and you are creator of golden wealth, honour and excellence.
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