ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 6
त्वं वर्मा॑सि स॒प्रथः॑ पुरोयो॒धश्च॑ वृत्रहन्। त्वया॒ प्रति॑ ब्रुवे यु॒जा ॥६॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । वर्म॑ । अ॒सि॒ । स॒ऽप्रथः॑ । पु॒रः॒ऽयो॒धः । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । त्वया॑ । प्रति॑ । ब्रु॒वे॒ । यु॒जा ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं वर्मासि सप्रथः पुरोयोधश्च वृत्रहन्। त्वया प्रति ब्रुवे युजा ॥६॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। वर्म। असि। सऽप्रथः। पुरःऽयोधः। च। वृत्रऽहन्। त्वया। प्रति। ब्रुवे। युजा ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वयः
हे वृत्रहन् राजन् ! यस्त्वं योधः सप्रथो वर्मेव चासि येन युजा त्वयाऽहं प्रति ब्रुवे स त्वं पुरो रक्षको भव ॥६॥
पदार्थः
(त्वम्) (वर्म) कवचमिव (असि) (सप्रथः) सप्रख्यातिः (पुरः) पुरस्तात् (योधः) योद्धा (च) (वृत्रहन्) दुष्टानां हन्तः (त्वया) (प्रति) (ब्रुवे) उपदिशामि (युजा) यो न्यायेन युनक्ति तेन ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजा सत्कीर्तिः सुशीलो निरभिमानो विद्वान् स्यात्तर्हि तं प्रति सर्वे सत्यं ब्रूयुः स च श्रुत्वा प्रसन्नः स्यात् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वृत्रहन्) दुष्टों के हननेवाला राजा ! जो (त्वम्) आप (योधः) युद्ध करनेवाले (सप्रथः) प्रख्याति प्रशंसा के सहित (वर्म, च) और कवच के समान (असि) हैं जिस (युजो) न्याय से युक्त होनेवाले (त्वया) आपके साथ मैं (प्रति, ब्रुवे) प्रत्यक्ष उपदेश करता हूँ सो आप (पुरः) आगे रक्षा करनेवाले हूजिये ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो राजा सत्कीर्ति, सुशील, निरभिमान, विद्वान् हो तो उसके प्रति सब सत्य बोलें और वह सुनकर प्रसन्न हो ॥६॥
विषय
वह दुष्ट के निमित्त प्रजा को पीड़ित न करे ।
भावार्थ
हे ( वृत्रहन् ) दुष्टों के नाश करने हारे ! ( त्वं ) तू ( सप्रथः ) उत्तम ख्याति से युक्त ( वर्म असि ) कवच के समान रक्षक, और ( पुरः योधः च ) आगे बढ़कर युद्ध करने हारा भी है । ( त्वया युजा ) तुझ सहायक से मैं ( प्रति ब्रुवे ) शत्रु का उत्तर दूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः – १ विराड् गायत्री । २,८ गायत्री । ६, ७, ९ निचृद्गायत्री । ३, ४, ५ आर्च्युष्णिक् । १०, ११ भुरिगनुष्टुप् । १२ अनुष्टुप् ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
राजा प्रजा की कवचवत् रक्षा करे
पदार्थ
पदार्थ - हे (वृत्रहन्) = दुष्टनाशक ! (त्वं) = तू (सप्रथः) = ख्याति से युक्त (वर्म असि) = कवच तुल्य रक्षक और (पुरः योधः च) = आगे बढ़कर युद्धकर्ता है। (त्वया युजा) = तुझ सहायक से मैं (प्रति ब्रुवे) = शत्रु का उत्तर दूँ।
भावार्थ
भावार्थ- राजा अपनी प्रजा का कुशल नेतृत्व करते हुए कवच के समान उसकी रक्षा करे तथा प्रेरणा करे कि वह शत्रु से राष्ट्र की रक्षा करने में समर्थ हो ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर राजा उत्तम कीर्तिप्राप्त, सुशील, निरभिमानी, विद्वान असेल तर त्याच्याबरोबर सर्वांनी सत्य बोलावे. जे ऐकून तो प्रसन्न व्हावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You are the celebrated armour of defence and all round protection, front rank warrior, destroyer of evil, darkness and want: committed to you in covenant, I say so and bind myself.
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