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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    मा नो॑ नि॒दे च॒ वक्त॑वे॒ऽर्यो र॑न्धी॒ररा॑व्णे। त्वे अपि॒ क्रतु॒र्मम॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । नि॒दे । च॒ । वक्त॑वे । अ॒र्यः । र॒न्धीः॒ । अरा॑व्णे । त्वे इति॑ । अपि॑ । क्रतुः॑ । मम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो निदे च वक्तवेऽर्यो रन्धीरराव्णे। त्वे अपि क्रतुर्मम ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। निदे। च। वक्तवे। अर्यः। रन्धीः। अराव्णे। त्वे इति। अपि। क्रतुः। मम ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे राजन्नर्यस्त्वं यो मम त्वे क्रतुरस्ति तं मा रन्धीरपितु नो वक्तवे अराव्णे निदे च भृशं दण्डं दद्याः ॥५॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (निदे) निन्दकाय (च) (वक्तवे) वक्तव्याय (अर्यः) स्वामी सन् (रन्धीः) हिंस्याः (अराव्णे) अदात्रे (त्वे) त्वयि (अपि) (क्रतुः) प्रज्ञा (मम) ॥५॥

    भावार्थः

    राजा सदैव विद्याधर्मसुशीलतां वर्धयित्वा निन्दकारीन् दुष्टान् मनुष्यान्निवार्य्य प्रजाः सततं रञ्जयेत् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! (अर्यः) स्वामी होते हुए जो (मम, त्वे) मेरी तुम्हारे बीच (क्रतुः) उत्तम बुद्धि है उसको (मा) मत (रन्धीः) नष्ट करो (अपि) किन्तु (नः) हमारे (वक्तवे) कहने योग्य (अराव्णे) न देनेवाले के लिये और (निदे) निन्दक के लिये (च) भी निरन्तर दण्ड देओ ॥५॥

    भावार्थ

    राजा सदैव विद्या, धर्म और सुशीलता बढ़वाने के लिये निन्दक, दुष्ट मनुष्यों को निवार के प्रजा को निरन्तर प्रसन्न करे ॥५॥

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    विषय

    वह दुष्ट के निमित्त प्रजा को पीड़ित न करे ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू ( अर्यः ) स्वामी होकर ( नः ), हमें ( निदे ) निन्दक ( वक्तवे ) गर्हित, (अरावणे ) अदानशील, अराति, शत्रु के हित के लिये ( मा रन्धीः ) मत दण्डित कर, उसके अधीन भी मत कर, और ( मम त्वे अपि क्रतुः ) मेरी जो तेरे में सद् बुद्धि है उसे भी तू नष्ट मत होने दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः – १ विराड् गायत्री । २,८ गायत्री । ६, ७, ९ निचृद्गायत्री । ३, ४, ५ आर्च्युष्णिक् । १०, ११ भुरिगनुष्टुप् । १२ अनुष्टुप् ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    राजा प्रजा को पीड़ित न करे

    पदार्थ

    पदार्थ- हे राजन्! तू (अर्यः) = स्वामी होकर (न:) = हमें (निदे) = निन्दक (वक्तवे) = गर्हित, (अरावणे) = अदानशील शत्रु के (हितार्थ मा रन्धीः) = मत दण्डित कर और (मम त्वे अपि क्रतुः) = मेरी जो तेरे में सद्बुद्धि है उसे तू नष्ट मत होने दे।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा को योग्य है कि अन्य राजा को या राष्ट्र को हानि पहुँचानेवाले ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति को लाभ पहुँचाने के लिए अपनी प्रजा को पीड़ित न करे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने सदैव विद्या, धर्म, सुशीलता वाढविण्यासाठी निंदक व दुष्ट माणसांचे निवारण करून प्रजेला निरंतर सुखी व प्रसन्न करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord ruler of the nation, leave us not to the reviler, malignant scandaliser, and the selfish miser. My strength, intelligence and action sustains in you and flows from there.

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