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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऊ॒र्ध्वास॒स्त्वान्विन्द॑वो॒ भुव॑न्द॒स्ममुप॒ द्यवि॑। सं ते॑ नमन्त कृ॒ष्टयः॑ ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ॒र्ध्वासः॑ । त्वा॒ । अनु॑ । इन्द॑वः । भुव॑न् । द॒स्मम् । उप॑ । द्यवि॑ । सम् । ते॒ । न॒म॒न्त॒ । कृ॒ष्टयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ध्वासस्त्वान्विन्दवो भुवन्दस्ममुप द्यवि। सं ते नमन्त कृष्टयः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्ध्वासः। त्वा। अनु। इन्दवः। भुवन्। दस्मम्। उप। द्यवि। सम्। ते। नमन्त। कृष्टयः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कं नरं सर्वे नमन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! य ऊर्ध्वास इन्दवोऽनु भुवँस्ते कृष्टयः उपद्यवि दस्मं त्वा सन्नमन्त ॥९॥

    पदार्थः

    (ऊर्ध्वासः) उत्कृष्टाः (त्वा) त्वाम् (अनु) (इन्दवः) ऐश्वर्ययुक्ता आनन्दिताः (भुवन्) भवन्ति (दस्मम्) (उप) (द्यवि) समीपस्थे प्रकाशितेऽप्रकाशिते वा (सम्) (ते) तव (नमन्त) नमन्ति (कृष्टयः) मनुष्याः ॥९॥

    भावार्थः

    यस्य राज्ञः समीपे भद्रा धार्मिका जनाः सन्ति तस्य विनयेन सर्वाः प्रजाः नम्रा भवन्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर किस मनुष्य को सब नमते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जो (ऊर्ध्वासः) उत्कृष्ट (इन्दवः) ऐश्वर्ययुक्त आनन्दित (अनु, भुवन्) अनुकूल होते हैं (ते) वे (कृष्टयः) मनुष्य (उपद्यवि) समीपस्थ प्रकाशित वा अप्रकाशित विषय में (दस्मम्) शत्रुओं का उपक्षय विनाश करने (त्वा) आपको (सम्, नमन्त) अच्छे प्रकार नमते हैं ॥९॥

    भावार्थ

    जिस राजा के समीप में भद्र, धार्मिक जन हैं, उसकी नम्रता से सब प्रजा नम्र होती है ॥९॥

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    विषय

    सबका आदरणीय हो ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! विद्वन् ! प्रभो ! ( ऊर्ध्वासः ) जो उत्तम कोटि के ( इन्दवः ) समस्त ऐश्वर्य, एवं ऐश्वर्ययुक्त, आनन्दित जन हैं वे ( द्यवि ) इस पृथिवी पर ( त्वा दस्मम् ) शत्रुनाशक तुझ को ही (उपभुवन् ) प्राप्त हों और ( त्वा अनु भुवन् ) तेरे अनुकूल हों । ( कृष्टयः ) सब प्रजाजन ( ते सं नमन्त ) तेरे लिये विनय से झुकें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः – १ विराड् गायत्री । २,८ गायत्री । ६, ७, ९ निचृद्गायत्री । ३, ४, ५ आर्च्युष्णिक् । १०, ११ भुरिगनुष्टुप् । १२ अनुष्टुप् ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    प्रजा राजा के अनुकूल हो

    पदार्थ

    पदार्थ- हे राजन् ! (ऊर्ध्वासः) = जो उत्तम कोटि के (इन्दवः) = ऐश्वर्य एवं आनन्दित जन हैं वे (द्यवि) = इस पृथिवी पर (त्वा दस्मम्) = शत्रु नाशक तुझको ही उपभुवन् प्राप्त हों और (त्वा अनु भुवन्) = तेरे अनुकूल हों। (कृष्टयः) = सब प्रजाजन (ते सं नमन्त) = तेरे लिये झुकें।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा को विनयशील होकर प्रजा का सेवक होना चाहिए जिससे समस्त प्रजा राजा की कृतज्ञ होकर उसके अनुकूल चलनेवाली होवे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या राजाजवळ धार्मिक सत्पुरुष असतात. त्या राजाच्या नम्रतेमुळे सर्व प्रजा नम्र होते. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    People of the world together in unison bow to you in homage and subsequently joyous voices of admiration rise for you, mighty lord destroyer of enemies, like mists of soma unto the heights of heaven.

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