ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 67/ मन्त्र 4
अ॒वोर्वां॑ नू॒नम॑श्विना यु॒वाकु॑र्हु॒वे यद्वां॑ सु॒ते मा॑ध्वी वसू॒युः । आ वां॑ वहन्तु॒ स्थवि॑रासो॒ अश्वा॒: पिबा॑थो अ॒स्मे सुषु॑ता॒ मधू॑नि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒वोः । वा॒म् । नू॒नम् । अ॒श्वि॒ना॒ । यु॒वाकुः॑ । हु॒वे । यत् । वा॒म् । सु॒ते । मा॒ध्वी॒ इति॑ । व॒सु॒ऽयुः । आ । वा॒म् । व॒ह॒न्तु॒ । स्थवि॑रासः । अश्वाः॑ । पिबा॑थः । अ॒स्मे इति॑ । सुऽसु॑ता । मधू॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवोर्वां नूनमश्विना युवाकुर्हुवे यद्वां सुते माध्वी वसूयुः । आ वां वहन्तु स्थविरासो अश्वा: पिबाथो अस्मे सुषुता मधूनि ॥
स्वर रहित पद पाठअवोः । वाम् । नूनम् । अश्विना । युवाकुः । हुवे । यत् । वाम् । सुते । माध्वी इति । वसुऽयुः । आ । वाम् । वहन्तु । स्थविरासः । अश्वाः । पिबाथः । अस्मे इति । सुऽसुता । मधूनि ॥ ७.६७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 67; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अश्विना) हे सेनाधीशौ राजपुरुषौ ! (नूनम्) निश्चयेन (वां) युवयोः (अवोः) रक्षित्रोः (वसूयुः) वसुकामः (युवाकुः) भवत्कामयमानोऽहं (हुवे) प्रार्थये (यत्) यस्मात् (वां) युवयोः (माध्वी) मधुविद्याः (अस्मे) अस्मान् (सुते, आ, वहन्तु) सुमार्गेषु प्रेरयन्तु यतो वयं (सुषुता) सुशिक्षिताः सन्तः (मधूनि) मधुद्रव्याणि (पिबाथः) भुञ्जानाः सुखिनो भवेम, अन्यच्च (स्थविरासः) ज्ञानवृद्धा भवन्तः (अश्वाः) शीघ्रकार्य्यकर्त्तारो भवन्तः, मामुपदिशन्तु ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अश्विना) हे सेनापति तथा न्यायाधीश राजपुरुषो ! (नूनं) निश्चय करके (वां) तुम लोग (अवोः) हमारी रक्षा करनेवाले हो, (युवाकुः) तुम्हारी कामना करते हुए हम लोग (हुवे) तुम्हें आवाहन करते हैं, (यत्) क्योंकि (वां) तुम लोग (माध्वी) मधुविद्या में (सुते) कुशल हो, इसलिए (वां) आप लोग हमको (वसूयुः) धन से सम्पन्न करो (स्थविरासः) परिपक्क आयुवाले (अश्वाः) शीघ्र कार्य्यकर्त्ता आप लोग (अस्मे) हम लोगों को (आ, वहन्तु) भले प्रकार शुभ मार्गों में प्रेरें, ताकि (सुषुता, मधूनि) संस्कार किये हुए मधुर द्रव्यों को (पिबाथः) ग्रहण करके सुखी हों ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे प्रजाजनों ! तुम उन राजशासनकर्त्ताओं से इस प्रकार प्रार्थना करो कि हे राजपुरुषो ! आप हमारे नेता बनकर हमें उत्तम मार्गों पर चलायें, ताकि हम सब प्रकार की समृद्धि को प्राप्त हों, हममें कभी रागद्वेष न हो और हम सदा आपकी धर्मपूर्वक आज्ञा का पालन करें। परमात्मा आज्ञा देते हैं कि तुम दोनों मिलकर चलो, क्योंकि जब राजा तथा प्रजा में प्रेमभाव उत्पन्न होता है, तब वह मधुविद्या=रसायनविद्या को प्राप्त होते हैं अर्थात् दोनों का एक लक्ष्य हो जाने से संसार में कल्याण की वृद्धि होती है ॥४॥
विषय
उन का आचार्य के अधीन वास, भैक्ष्य, मधुकरी वृत्ति ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय नर नारियो ! ( नूनम् ) अवश्य मैं ( युवाकुः ) तुम दोनों को हृदय से चाहता हुभा, ( वसूयुः ) नाना अन्तेवासी शिष्य ब्रह्मचारियों की कामना करता हुआ आचार्य ( सुते ) उत्तम ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त कराने के निमित्त ( अवोः ) व्रत नियम ब्रह्मचर्यादि का पालन करने वाले आप दोनों में से ( वां ) तुम दोनों को ( माध्वी ) मधु अर्थात् मधुर, ऋग्वेद, मधु विद्या, उपनिषत् ज्ञान, और 'मधु' आनन्दप्रद अन्नादि के योग्य जानकर ( हुवे ) प्राप्त करूं । ( स्थविरासः ) ज्ञानवृद्ध (अश्वाः ) नाना विद्याविचक्षण पुरुष ( वां ) तुम दोनों को उत्तम अश्वों के समान ( आ वहन्तु ) आगे सन्मार्ग पर ले चलें। आप लोग ( अस्मे ) हमारे ( सु-सुता ) उत्तम रीति से बनाये, ( मधूनि ) ज्ञानों और अन्नों का ( पिबाथः ) उपभोग और पालन करो । मधु के समान नाना ज्ञानवृद्ध पुरुषों के सत्संग से एकत्र करने योग्य होने से ज्ञान और नाना गृहस्थों से भिक्षा रूप में संग्रह करने योग्य अन्न 'मधु' है । ब्रह्मचारी वर्गों का उसको संग्रह करना 'मधुकरी' वृत्ति है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ६, ७, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ४ आर्षी त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मधुकरी वृत्ति
पदार्थ
पदार्थ- हे (अश्विना) = जितेन्द्रिय नर-नारियो ! (नूनम्) = अवश्य मैं (युवाकु:) = तुम को हृदय से चाहता हुआ, (वसूयुः) = शिष्य-ब्रह्मचारियों की कामना करता हुआ आचार्य (सुते) = उत्तम ज्ञानैश्वर्य के निमित्त (अवोः) = ब्रह्मचर्यादि-पालक आप दोनों में से (वां) = तुम दोनों को (माध्वी) = ऋग्वेद, मधु-विद्या, (उपनिषत्) = ज्ञान और 'मधु' आनन्दप्रद अन्नादि के योग्य जानकर हुवे प्राप्त करूँ। (स्थविरासः) = ज्ञानवृद्ध (अश्वाः) = विद्या - विचक्षण पुरुष (वां) = तुम दोनों को (आ वहन्तु) = सन्मार्ग पर ले चलें। आप लोग (अस्मे) = हमारे (सु-सुता) = उत्तम रीति से बनाये, (मधूनि) = ज्ञानों और अन्नों का (पिबाथ:) = उपभोग और पालन करो। ज्ञानवृद्धों के सत्संग से एकत्र करने योग्य होने से ज्ञान और गृहस्थों से भिक्षारूप में संग्रह करने योग्य अन्न 'मधु' है। उसका संग्रह करना 'मधुकरी' वृत्ति है।
भावार्थ
भावार्थ- जैसे मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों पर जा-जाकर पराग का एक-एक कण लाकर संग्रह करके उत्तम मधु को तैयार करती है उसी प्रकार से जितेन्द्रिय नर-नारी ज्ञान पिपासु होकर विविध विद्याओं में निष्णात विद्वानों के पास जा-जाकर विविध विद्याओं का संग्रह करें तथा इस काल में आजीविका भी 'मधुकरी वृत्ति' अर्थात् भिक्षा वृत्ति से ही चलावे।
इंग्लिश (1)
Meaning
O sweet and kind twin divine powers of nature and humanity, Ashvins, harbingers of a new dawn for the social order of the world, dedicated to your means and modes of preservation, defence and progress, and desirous of advancement in the wealth, honour and excellence of the nation, I invite you to take over the conduct of this great yajna of the ruling order. May seasoned and strong sages, scholars and experts of the nation lead you hither. Come, share and promote for us all the honey sweets of our yajnic planning and achievement.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे प्रजाजनांनो। तुम्ही राज्यकर्त्यांना या प्रकारे प्रार्थना करा, की हे राजपुरुषांनो! तुम्ही आमचे नेते बनून आम्हाला उत्तम मार्गाने चालवा. त्यामुळे आमची सर्व प्रकारे समृद्धी व्हावी. आमच्यात कधी रागद्वेष उत्पन्न होता कामा नये. आम्ही सदैव तुमच्या धार्मिक आज्ञांचे पालन करावे. परमात्मा आज्ञा करतो, की तुम्ही दोघे मिळून राहा. कारण जेव्हा राजा व प्रजेत प्रेमभाव उत्पन्न होतो तेव्हा ते मधुविद्या-रसायन विद्या प्राप्त करतात. अर्थात दोघांचे लक्ष्य एकच असल्यामुळे जगाच्या कल्याणात वाढ होते. ॥४॥
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