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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 67/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एक॑स्मि॒न्योगे॑ भुरणा समा॒ने परि॑ वां स॒प्त स्र॒वतो॒ रथो॑ गात् । न वा॑यन्ति सु॒भ्वो॑ दे॒वयु॑क्ता॒ ये वां॑ धू॒र्षु त॒रण॑यो॒ वह॑न्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑स्मिन् । योगे॑ । भु॒र॒णा॒ । स॒मा॒ने । परि॑ । वाम् । स॒प्त । स्र॒वतः॑ । रथः॑ । गा॒त् । न । वा॒य॒न्ति॒ । सु॒ऽभ्वः॑ । दे॒वऽयु॑क्ताः । ये । वा॒म् । धूः॒ऽसु । त॒रण॑यः । वह॑न्ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकस्मिन्योगे भुरणा समाने परि वां सप्त स्रवतो रथो गात् । न वायन्ति सुभ्वो देवयुक्ता ये वां धूर्षु तरणयो वहन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकस्मिन् । योगे । भुरणा । समाने । परि । वाम् । सप्त । स्रवतः । रथः । गात् । न । वायन्ति । सुऽभ्वः । देवऽयुक्ताः । ये । वाम् । धूःऽसु । तरणयः । वहन्ति ॥ ७.६७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 67; मन्त्र » 8
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वां) देवमनुष्ययोः (भुरणा) प्राणिमात्रस्य रक्षित्रोर्युवयोः (एकस्मिन्, योगे) एकस्मिन् स्थाने (स्रवतः) ज्ञानेन्द्रियप्रवाहस्य (सप्त) सप्त वृत्तयः परिस्रवन्ति किञ्च, (वां) युवयोः (धूर्षु) नाभिषु प्रोताः (तरणयः) शीघ्रगामिन्यः (देवयुक्ताः) परमात्मविषयिण्यः (सुभ्वः) साध्व्यः (न, वायन्ति) न ग्लायन्ति, अन्यच्च (ये) या वृत्तयः (समाने) समाहिते (परि, गात्) गच्छन्ति ताः (रथम्) ज्ञानं (वहन्ति) जनयन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वां) हे देव तथा मनुष्यो ! (भुरणा, समाने) मनुष्यमात्र के लिए समान (एकस्मिन्, योगे) एक योग में (सप्त, स्रवतः) ज्ञानेन्द्रियों के सात प्रवाह (रथः, गात्) उस मार्ग को प्राप्त कराते हैं, (ये) जो (परि) सब ओर से परिपूर्ण हैं (वां) तुम दोनों के (धूर्षु) धुराओं में लगे हुए (तरणयः) युवावस्था को प्राप्त (देवयुक्ताः) परमात्मा में युक्त (सुभ्वः) दृढतावाले (वायन्ति न) थकित न होनेवाले उस मार्ग में (वहन्ति) चलाते अर्थात् उस मार्ग को प्राप्त कराते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे दिव्यशक्तिसम्पन्न विद्वानों तथा साधारण मनुष्यो ! तुम दोनों के लिए योग=परमात्मस्वरूप में जुड़ना समान है अर्थात् देव, साधारण तथा प्राकृत जन सभी उसको प्राप्त हो सकते हैं, वह एक सब का उपास्यदेव है, उसकी प्राप्ति के लिये बड़े दृढ सात साधन हैं, जिनके संयम द्वारा पुरुष उस योग को प्राप्त हो सकता है। वे सात इस प्रकार हैं, पाँच ज्ञानेन्द्रिय जिनसे जीवात्मा बाह्य जगत् के ज्ञान को उपलब्ध करता अर्थात् संसार की रचना देखकर परमात्मसत्ता का अनुमान करता है, मन से मनन करता और सदसद्विवेचन करनेवाली बुद्धि से परमात्मा का निश्चय करता है, इनमें श्रोत्रेन्द्रिय, मन तथा बुद्धि, ये तीनों परमात्मप्राप्ति में अन्तरङ्गसाधन हैं, इसी अभिप्राय से उपनिषदों में वर्णन किया है कि “आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।” वह परमात्मा श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन करने योग्य है। वेदवाक्यों द्वारा परमात्मविषयक सुनने का नाम “श्रवण”, सुने हुए अर्थ को युक्तियों द्वारा मन से विचारने का नाम “मनन” और उस मनन किये हुए को निश्चित बुद्धि द्वारा धारण करने का नाम “निदिध्यासन” है। तीन ये और चार अन्य सातों ही देव का समीपी बनाते हैं, जो सबका उपास्य है ॥८॥

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    विषय

    विद्याध्ययनशील जनों को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे ( भुरणा ) समस्त प्रजाओं का भरण पोषण करने वाले, जितेन्द्रिय नर नारियो ! ( एकस्मिन् ) एक ही ( समाने ) एक समान आदर से युक्त ( योगे ) परस्पर के मिलने पर ( वां रथः ) आप दोनों के रथ के समान सन्मार्ग पर ले जाने हारा उपदेष्टा पुरुष ( सप्त स्रवतः ) प्रवाह से निकलने वाली सातों छन्दोमय वाणियों को ( परि गात् ) प्राप्त करे, करावे । ( ये ) जो ( वां ) आप दोनों के ( धूर्षु ) धुराओं में लगे, धुरन्धर विद्वान् (तरणयः ) वेगवान् अश्वों के समान वेग से संकटों से पार उतारने वाले विद्वान् जन (वां वहन्ति ) आप दोनों को सन्मार्ग पर ले जाते हैं वे ( सुभ्वः ) उत्तम सुखजनक, उत्तम सामर्थ्यवान्, (देव-युक्ताः) विद्वानों से नियुक्त होकर ( न वायन्ति ) कभी सत्पथ से विचलित नहीं होते । अध्यात्म में – एक ही योग में (रथः) रन्ता, आत्मा (सप्त स्रवतः) मुखगत सात प्राणों पर वश करता है, प्राणगण सुख, शक्ति से युक्त होकर ( न वायन्ति ) कभी नाश को प्राप्त नहीं हों, यदि वे विद्वानों द्वारा ज्ञानपूर्वक सन्मार्ग में चलाये जावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ६, ७, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ४ आर्षी त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सन्मार्ग दर्शन

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (भुरणा) = प्रजाओं के पोषक जितेन्द्रिय नर-नारियो ! (एकस्मिन्) = समाने एक समान आदर युक्त योगे-परस्पर मिलने पर (वां रथः) = आप दोनों के रथ के समान सन्मार्ग पर ले जाने हारा उपदेष्टा पुरुष (सप्त स्त्रवतः) = प्रवाह से निकलनेवाली सात छन्दोमय वाणियों को (परि गात्) = प्राप्त करे, करावे। (ये) = जो (वां) = आप दोनों के (धूर्षु) = धुराओं में लगे, धुरन्धर विद्वान् (तरणयः) = वेगवान् अश्व तुल्य वेग से संकटों से पार उतारनेवाले विद्वान् (वां वहन्ति) आप दोनों को सन्मार्ग पर ले जाते हैं (सुभ्वः) = उत्तम सामर्थ्यवान् (देवयुक्ताः) = विद्वानों से नियुक्त होकर (न वायन्ति) = सत्पथ से विचलित नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- श्रेष्ठ विद्वानों का कर्त्तव्य है कि वे प्रजाओं को सात छन्दोंवाली वेदवाणी का उपदेश किया करें। इससे स्त्री-पुरुष जितेन्द्रिय होकर सन्मार्ग पर चलते रहेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, responsive givers of fulfilment, pranic energies of nature and mind, dedicated to a common purpose with humanity, the radiant inspiration of your spiritual power as a carrier of vision goes past the fluctuations of the five senses, mind and intellect. The seven, which otherwise involve the soul with fluctuations of the mind, when converted, inverted and converged on to the spirit of your vision at the centres of consciousness, no longer distract the soul, instead they become the carriers of consciousness to the divine goal of spiritual bliss.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे दिव्यशक्तिसंपन्न विद्वानांनो व साधारण माणसांनो! तुम्हा दोघांसाठी योगपरमात्म्याशी जुडणे समान आहे. अर्थात, देव, साधारण प्राकृतजन सर्व जण त्याला प्राप्त करू शकतात. तो सर्वांचा उपास्यदेव आहे. त्याच्या प्राप्तीसाठी सात दृढ साधने आहेत. ज्यांच्या संयमाद्वारे पुरुष त्या योगाला प्राप्त करू शकतो. ते सात या प्रकारे आहेत. पाच ज्ञानेंद्रिये ज्यांच्याद्वारे जीवात्या बाह्य जगातील ज्ञान उपलब्ध करून घेतो. अर्थात, जगाची रचना पाहून परमात्मसत्तेचे अनुमान करतो. मनाने मनन करतो व सदसद्विवेचन करणाऱ्या बुद्धीने परमेश्वराचा निश्चय करतो. यापैकी श्रोत्रेंद्रिय, मन व बुद्धी हे तिन्ही परमात्मप्राप्तीमध्ये अंतरंग साधने आहेत. याच अभिप्रायाने उपनिषदात वर्णन आहे, की ‘आत्मा वारे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य ।’

    टिप्पणी

    परमात्मा श्रवण, मनन व निदिध्यासन करण्यायोग्य आहे. वेदवाक्यांद्वारे परमात्मविषयी ऐकण्याचे नाव ‘श्रवण’ व ऐकलेल्या अर्थाला युक्तीद्वारे मनाने विचार करण्याचे नाव ‘मनन’ व त्या मनन केलेल्याला निश्चित बुद्धिद्वारे धारण करण्याचे नाव ‘निदिध्यासन’ आहे. हे तीन व चार इतर हे सातही देवाची जवळीक साधतात. जो सर्वांचा उपास्य आहे. ॥८॥

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