ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 67/ मन्त्र 9
अ॒स॒श्चता॑ म॒घव॑द्भ्यो॒ हि भू॒तं ये रा॒या म॑घ॒देयं॑ जु॒नन्ति॑ । प्र ये बन्धुं॑ सू॒नृता॑भिस्ति॒रन्ते॒ गव्या॑ पृ॒ञ्चन्तो॒ अश्व्या॑ म॒घानि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स॒श्चता॑ । म॒घव॑त्ऽभ्यः । हि । भू॒तम् । ये । रा॒या । म॒घ॒ऽदेय॑म् । जु॒नन्ति॑ । प्र । ये । बन्धु॑म् । सू॒नृता॑भिः । ति॒रन्ते॑ । गव्या॑ । पृ॒ञ्चन्तः॑ । अश्व्या॑ । म॒घानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असश्चता मघवद्भ्यो हि भूतं ये राया मघदेयं जुनन्ति । प्र ये बन्धुं सूनृताभिस्तिरन्ते गव्या पृञ्चन्तो अश्व्या मघानि ॥
स्वर रहित पद पाठअसश्चता । मघवत्ऽभ्यः । हि । भूतम् । ये । राया । मघऽदेयम् । जुनन्ति । प्र । ये । बन्धुम् । सूनृताभिः । तिरन्ते । गव्या । पृञ्चन्तः । अश्व्या । मघानि ॥ ७.६७.९
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 67; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मप्राप्त्यधिकारिणो वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(हि) निश्चयेन (ये) ये जनाः (राया) धनेन युक्ताः (मघदेयं) हविर्लक्षणं पदार्थं (जुनन्ति) युञ्जन्ति (असश्चता) विषयेषु अक्षताः सन्तः (मघवद्भ्यः) ऋत्विगादिभ्यः (भूतं) प्रभूतं धनं (ये) ये जना ददति अन्यच्च ये (बन्धुं) स्वबन्धुं (सूनृताभिः) सत्यवचोभिः (प्रतिरन्ते) वर्धयन्ति अन्यच्च ये (गव्या) गोरूपाणि (मघानि) धनानि (अश्व्या) अश्वरूपाणि च (पृञ्चन्तः) अर्थिभ्यः प्रयच्छन्तस्ते परमात्मप्राप्तेरधि-कारिणो भवन्ति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मप्राप्ति के अधिकारियों का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(हि) निश्चय करके (ये) जो (राया) धन द्वारा (मघदेयं) हव्यादि पदार्थ (जुनन्ति) नियुक्त करते (असश्चता) किसी विषय में आसक्त न होकर (मधवद्भ्यः) ऋत्विगादिकों को (भूतं) धन दान देते (ये) जो (प्र) प्रसन्नतापूर्वक (बन्धु) अपने बन्धुओं को (सूनृताभिः) सुन्दर वाणियों द्वारा (तिरन्ते) बढ़ाते और जो (गव्या) गौयें (मघानि) धन (अश्व्या) घोड़े (पृञ्चन्तः) अर्थियों को देते हैं, वे परमात्मप्राप्ति के अधिकारी होते हैं ॥९॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि जो यम-नियमादिकों से सम्पन्न अर्थात् किसी विषय में फँसे हुए नहीं, सत्पुरुषों को धनादि पदार्थ देने में उदार, प्रसन्न चित्त से मीठी वाणी बोलकर अपने सम्बन्धियों को प्रसन्न रखते और सत्यभाषण तथा सत्य का प्रचार करते हैं, वे उदार पुरुष परमात्मपद के अधिकारी होते हैं ॥९॥
विषय
विद्याध्ययनशील जनों को उपदेश ।
भावार्थ
हे जितेन्द्रिय नर नारियो ! ( ये ) जो लोग ( राया ) अपने ऐश्वर्य के बल से, (मघ-देयं ) दातव्य, ऐश्वर्य, (जुनन्ति ) प्रदान करते हैं उन ( मघवद्भ्यः ) उत्तम दातव्य ज्ञान-धन शाली पुरुषों के उपकार के लिये आप लोग ( असश्चता हि भूतम् ) दुर्व्यसनों में असक्त होकर रहो । ( ये ) जो लोग ( अश्व्या ) अश्वों से युक्त और (गव्या) गौवों से समृद्ध ( मधानि ) नाना धनों को ( पृञ्चन्तः ) प्राप्त करते हुए (सूनृताभिः ) उत्तम वाणियों और अन्नों से ( बन्धुं ) अपने बन्धुजन को ( प्र तिरन्ते ) अच्छी प्रकार बढ़ाते हैं उनके लिये भी आप लोग विषयादि में न फंसकर सदा सेवा में तत्पर रहो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ६, ७, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ४ आर्षी त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
दुर्गुण त्याग
पदार्थ
पदार्थ- हे नर-नारियो ! (ये) = जो (राया) = ऐश्वर्य बल से (मघ-देयं) = दातव्य ऐश्वर्य (जुनन्ति) = देते हैं उन (मघवद्भ्यः) = ज्ञान-धनशाली पुरुषों के उपकार हेतु आप लोग (असश्चता हि भूतम्) = दुर्व्यसनों में असक्त रहो। (ये) = जो लोग (अश्व्या) = अश्वयुक्त और (गव्या) = गौवों से समृद्ध (मघानि) = धनों को (पृञ्चन्तः) = प्राप्त करते हुए (सूनृताभिः) = उत्तम वाणियों और अन्नों से (बन्धुं) = बन्धुजन को (प्र तिरन्ते) = अच्छी प्रकार बढ़ाते हैं उनके लिये आप विषयादि में न फँसकर सेवा में तत्पर रहो।
भावार्थ
भावार्थ- उत्तम स्त्री-पुरुष दुर्व्यव्यसनों में कभी न फँसें तथा परोपकार के कार्यों में सदैव दान देते हुए सेवा कार्यों में तत्पर रहें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Never forsake the generous : Be inexhaustible sources of incentive and encouragement for those who support charity with means and materials, those who help out friends and relatives in distress, and those who give liberal gifts of lands, cows and knowledge and things the needy love and desire.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा असा उपदेश करतो, की जे यमनियम इत्यादींनी संपन्न अर्थात कोणत्याही विषयात फसणार नाहीत. सत्पुरुषांना धन इत्यादी पदार्थ देण्यात उदार, प्रसन्न चित्ताने मधुर वाणीचा उपयोग करून आपल्या नातेवाईकांना प्रसन्न ठेवतात व सत्यभाषण व सत्याचा प्रचार करतात, ते उदार पुरुष परमात्मपदाचे अधिकारी बनतात ॥९॥
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