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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 67/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒वि॒ष्टं धी॒ष्व॑श्विना न आ॒सु प्र॒जाव॒द्रेतो॒ अह्र॑यं नो अस्तु । आ वां॑ तो॒के तन॑ये॒ तूतु॑जानाः सु॒रत्ना॑सो दे॒ववी॑तिं गमेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒वि॒ष्टम् । धी॒षु । अ॒श्वि॒ना॒ । नः॒ । आ॒सु । प्र॒जाऽव॑त् । रेतः॑ । अह्र॑यम् । नः॒ । अ॒स्तु॒ । आ । वा॒म् । तो॒के । तन॑ये । तूतु॑जानाः । सु॒ऽरत्ना॑सः । दे॒वऽवी॑तिम् । ग॒मे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अविष्टं धीष्वश्विना न आसु प्रजावद्रेतो अह्रयं नो अस्तु । आ वां तोके तनये तूतुजानाः सुरत्नासो देववीतिं गमेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अविष्टम् । धीषु । अश्विना । नः । आसु । प्रजाऽवत् । रेतः । अह्रयम् । नः । अस्तु । आ । वाम् । तोके । तनये । तूतुजानाः । सुऽरत्नासः । देवऽवीतिम् । गमेम ॥ ७.६७.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 67; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यजन्मनः फलचतुष्टयं प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    (अश्विना) हे ऐश्वर्यप्रद परमात्मन् ! (आसु धीषु) एषु कर्मसु (नः) अस्मान् (अविष्टं) रक्ष, अथ च (प्रजावत्) सन्तत्यर्थम् (अह्रयम्) अमोघम्, (रेतः) वीर्यं देहि (आ) अपरञ्च (नः) अस्माकम्, (वां) भवतः प्रसादात् (तोके) पुत्रे (तनये) पौत्रे सन्ततिविषये, इत्यर्थः (सुरत्नासः) शोभनधनाः (तूतुजानाः) प्रभूतं धनं प्रयच्छन्तो वयं (देववीतिं) देवसङ्गतिं प्राप्नुयाम ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय की प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    (वां, अश्विना) हे सन्तति तथा ऐश्वर्य्य के दाता परमात्मन् ! (धीषु, अविष्टं) कर्मों में सुरक्षित (नः) हमको (प्रजावत्) प्रजा उत्पन्न करने के लिए (अह्रयं) अमोघ (रेतः) वीर्य्य प्राप्त (अस्तु) हो (आ) और (नः) हमको (तोके) हमारे पुत्रों को (तनये) उनके पुत्र पौत्रादिकों के लिए (सुरत्नासः, तूतुजानाः) सुन्दर रत्नोंवाला यथेष्ट धन दें, ताकि हम (देववीतिं) विद्वानों की संगति को प्राप्त हों ॥६॥

    भावार्थ

    हे भगवन् ! प्रजा उत्पन्न करने का एकमात्र साधन अमोघ वीर्य्य हमें प्रदान करें, ताकि हम इस संसार में सन्ततिरहित न हों और हमको तथा उत्पन्न हुई सन्तान को धन दें, ताकि हम सुख से अपना जीवन व्यतीत कर सकें ॥ और जो “देववीति” पद से विद्वानों का सत्सङ्ग कथन किया है, उसका तात्पर्य्य यह है कि हे परमात्मन् ! आपकी कृपा से हमें धर्म और मोक्ष भी प्राप्त हो। इस मन्त्र में संक्षेप से मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय की प्रार्थना की गई है अर्थात् “सुरत्नास:” पद से अर्थ, “तनय” पद से धर्मपूर्वक उत्पन्न की हुई सन्ततिरूप कामना और “देववीति” पद से धर्म तथा मोक्ष का वर्णन किया है, क्योंकि वेदज्ञ विद्वानों के सत्सङ्ग किये बिना धर्म का बोध नहीं होता और धर्म के बिना मोक्ष=सुख का मिलना असम्भव है ॥ जो कई एक लोग अपनी अज्ञानता से यह कहा करते हैं कि वेदों में केवल प्राकृत बातों का वर्णन है, उनको ऐसे मन्त्रों पर ध्यान देन चहिए, जिनमें मनुष्य के कर्त्तव्यरूप लक्ष्य का स्पष्ट वर्णन पाया जाता है। ऐसा अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता, इसलिए वेदों के अपूर्व भावों पर दृष्टि डालना प्रत्येक आर्य्यसन्तान का परम कर्तव्य है ॥६॥

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    विषय

    उन के उद्देश्य और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! आप लोग ( आसुधीषु ) इन कर्मों और ज्ञान बुद्धियों के बीच, (नः अविष्टं ) हमारी रक्षा करो । और ( नः ) हमारा ( रेतः ) वीर्य, (प्रजावत् ) प्रजा उत्पन्न करने वाला, और ( अह्रयम् ) कभी नष्ट न होने वाला, अमोघ ( अस्तु ) हो । हम लोग ( तोके तनये ) पुत्र पौत्रादि के निमित्त ( वां ) आप दोनों की ( तूतुजाना: ) रक्षा करते हुए, ( सु-रत्नासः ) उत्तम ऐश्वर्यो और गुणों से युक्त होकर ( देव-वीतिं ) विद्वानों की संगति को ( आ गमेम ) प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ६, ७, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ४ आर्षी त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पदार्थ - हे (अश्विना) = जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो! आप (आसु धीषु) = इन कर्मों और बुद्धियों के बीच, (नः अविष्टं) = हमारी रक्षा करो और (नः) = हमारा (रेतः) = वीर्य,(प्रजावत्) = प्रजा-उत्पादक और (अह्रयम्) = नष्ट न होनेवाला (अस्तु) = हो। हम (तोके तनये) = पुत्र-पौत्रादि के लिए (वां) = आप की (तूतुजाना:) = रक्षा करते हुए, (सु-रत्नासः) = उत्तम ऐश्वर्ययुक्त होकर (देव-वीतिं) = विद्वानों की संगति को (आ गमेम) = प्राप्त हों।

    पदार्थ

    भावार्थ- स्त्री-पुरुषों को चाहिए वे उत्तम विद्वानों की संगति में रहकर जितेन्द्रिय बनें वीर्य की रक्षा करें। इससे सन्तान भी उत्तम होगी और स्वस्थ रहकर ऐश्वर्यशाली बनेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ashvins, divine powers of creation, preser vation, recuperation and procreation, protect us in all our acts of thought, will and action for achievement. May our creative and procreative vitality remain intact and inviolable for our posterity. By virtue of your inspiration and invigoration for the sake of children and grand children, let us be blest with jewels of posterity and let us rise to the company of the divines.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे भगवान! संतान उत्पन्न करण्याचे एकमात्र अमोघ साधन वीर्य असून, ते आम्हाला प्रदान कर. आम्ही या जगात संततीरहित राहता कामा नये. आम्हाला व आमच्या संतानाना धन दे. त्यामुळे आम्ही सुखाने आमचे जीवन व्यतीत करू शकू.

    टिप्पणी

    जे ‘देववीति’ पदाने विद्वानांच्या सत्संगाचे कथन केलेले आहे त्याचे तात्पर्य हे, की हे परमात्मा! तुझ्या कृपेने आम्हाला धर्म व मोक्षही प्राप्त व्हावा. या मंत्रात संक्षेपाने माणसाच्या चार फलांची (पुरुषार्थाची) प्रार्थना केलेली आहे. अर्थात, ‘सुरत्नास’ पदाचा अर्थ ‘तनय’ यापदाने धर्मपूर्वक उत्पन्न केलेली संततीरूपी कामना व ‘देववीति’ पदाने धर्म व मोक्षाचे वर्णन आहे. कारण वेदज्ञ विद्वानांचा सत्संग केल्याखेरीज धर्माचा बोध होत नाही व धर्माशिवाय मोक्ष= सुख मिळणे अशक्य आहे ॥ $ कित्येक लोक अज्ञानामुळे असे म्हणतात, की वेदात केवळ प्राकृत गोष्टींचे वर्णन आहे. त्यांनी अशा मंत्रांवर लक्ष दिले पाहिजे, की ज्यात माणसाच्या कर्तव्यरूप लक्ष्याचे स्पष्ट विवरण आढळून येते, असे कोणत्या इतर ग्रंथात नाही. त्यासाठी वेदांच्या अपूर्व भावावर दृष्टी ठेवणे हे प्रत्येक आर्यसंतानाचे परमकर्तव्य आहे. ॥६॥

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