ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 67/ मन्त्र 10
नू मे॒ हव॒मा शृ॑णुतं युवाना यासि॒ष्टं व॒र्तिर॑श्विना॒विरा॑वत् । ध॒त्तं रत्ना॑नि॒ जर॑तं च सू॒रीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठनु । मे॒ । हव॑म् । आ । शृ॒णु॒त॒म् । यु॒वा॒ना॒ । या॒सि॒ष्टम् । व॒र्तिः । अ॒श्वि॒नौ॑ । इरा॑ऽवत् । ध॒त्तम् । रत्ना॑नि । जर॑तम् । च॒ । सू॒रीन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू मे हवमा शृणुतं युवाना यासिष्टं वर्तिरश्विनाविरावत् । धत्तं रत्नानि जरतं च सूरीन्यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठनु । मे । हवम् । आ । शृणुतम् । युवाना । यासिष्टम् । वर्तिः । अश्विनौ । इराऽवत् । धत्तम् । रत्नानि । जरतम् । च । सूरीन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ७.६७.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 67; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यस्य कर्त्तव्यं कथ्यते।
पदार्थः
(नू) निश्चयेन (मे) मम (हवं) कल्याणदायकं वचनं (शृणुतं) शृणुतं (युवाना) हे युवावस्थासम्पन्नौ (अश्विनौ) गुरुशिष्यौ, युवाम् (इरावत्) हवनीयं (वर्तिः) गृहम् (यासिष्टं) आगच्छतं (च) किञ्च (सूरीन्) तेजस्विनो विदुषो धनिनः कुरुतं (रत्नानि, धत्तं) रत्नानि दत्तम्, किञ्च (जरतं) वर्धयतं (यूयं) विद्वांसः (स्वस्तिभिः) कल्याणकारकैः वचोभिः (सदा) सर्वदैव (नः) अस्मान् (पात) रक्षत ॥१०॥ इति सप्तषष्टितमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब मनुष्य का कर्त्तव्य वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(नु) निश्चय करके (मे) मेरे (हवं) इस कल्याणदायक वचन को (आ) भले प्रकार (शृणुतं) सुनो, (युवाना) हे युवा पुरुषो ! तुम (अश्विनौ) गुरु शिष्य दोनों (इरावत्) हवनयुक्त (वर्तिः) स्थान को (यासिष्टं) प्राप्त होओ (च) और (सूरीन्) तेजस्वी विद्वानों को (धत्तं, रत्नानि) रत्नादि उत्तम पदार्थों को धारण कराओ, ताकि वह (जरतं) वृद्धावस्था को प्राप्त (यूयं) तुमको (स्वस्तिभिः) मङ्गल वाणियों से (सदा) सदा (पात) पवित्र करें और तुम प्रार्थना करो कि (नः) हमको सदा शुभ आशीर्वाद दो ॥१०॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे युवापुरुषों ! तुम्हारा मुख्य कर्तव्य यह है कि तुम गुरु-शिष्य दोनों मिलकर यज्ञरूप अग्न्यागारों अथवा कलाकौशलरूप अग्निगृहों में जहाँ अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रादिकों की विद्या सिखलाई जाती है, जाओ और वहाँ जाकर आध्यात्मिक विद्या के विद्वानों तथा शिल्पविद्याविशारद देवों को प्रसन्न करो अर्थात् उनको विविध प्रकार का धन प्रदान करो, ताकि उनकी प्रसन्नता से तुम्हारा सदा के लिये कल्याण हो और तुम सदा उनसे नम्रभाव से वर्तो, ताकि वे तुम्हारा शुभचिन्तन करते रहें ॥तात्पर्य्य यह है कि गुरु-शिष्य दोनों मिलकर व्यावहारिक तथा पारमार्थिक दोनों प्रकार की उन्नति करें। जहाँ गुरु-शिष्य दोनों अध्ययनाध्यापन द्वारा अपनी उन्नति नहीं करते, वहाँ कदापि कल्याण नहीं होता। कल्याण की कामनावाले गुरु-शिष्य, राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष, धनाढ्य-निर्धन और पण्डित तथा मूर्ख, ये सब जोड़े जब तक एक अर्थ में नियुक्त होकर अपनी उन्नति नहीं करते, तब तक इनका कदापि कल्याण नहीं हो सकता। इसी भाव को कठोपनिषद् में इस प्रकार वर्णन किया है कि–सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ कठ० ६।१९॥ अर्थ−हे परमात्मन् ! आप हम दोनों की एक साथ रक्षा और पालन कीजिये, हम दोनों को शारीरिक और आत्मिक बल दें, हमारा स्वाध्याय तेजवाला हो, हम किसी के साथ अथवा आपस में द्वेष न करें और हम दोनों विद्याविशारद होकर सुखपूर्वक रहें और आप दोनों को संसार के शासन का बल दें, यह आप से प्रार्थना है ॥१०॥ यह ६७ वाँ सूक्त और १३ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
विद्याध्ययनशील जनों को उपदेश ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) सब ऐश्वर्यों और ज्ञानों को प्राप्त करने वाले स्त्री पुरुषो ! हे अश्वादि सैन्यों के स्वामियो ! आप लोग ( युवाना ) दोनों युवा युवति होकर (मे) मुझ विद्वान् के ( हवम् आ शृणुतम् ) ग्राह्य उपदेश को आदरपूर्वक श्रवण किया करो। आप लोग ( इरावत् वर्त्तिः) जल अन्न से युक्त मार्ग के समान, गृह को और ( इरावत् वर्त्तिः ) उत्तम प्रेरणा से युक्त व्यवहार को ( आ यासिष्टं तु ) अवश्य प्राप्त होओ । ( रत्नानि धत्तम् ) उत्तम रत्नों के तुल्य रम्य गुणों को धारण करो । ( सूरीन् ) विद्वान् पुरुषों को (जरतं च ) प्राप्त होकर विद्या का लाभ किया करो । हे विद्वान् पुरुषो ! ( यूयं ) आप लोग ( स्वस्तिभिः नः सदा पात ) उत्तम सुखदायक साधनों से हमारी रक्षा करें । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, २, ६, ७, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् । ४ आर्षी त्रिष्टुप् । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विद्या प्राप्ति
पदार्थ
पदार्थ- हे (अश्विना) = जिज्ञासु स्त्री पुरुषो! आप (युवाना) = युवा-युवति होकर (मे) = मुझ विद्वान् के (हवम् आ शृणुतम्) = उपदेश को आदर से सुनो। आप लोग (इरावत् वर्त्तिः) = जल अन्नयुक्त मार्ग के समान, उत्तम प्रेरणा-युक्त व्यवहार को (आ यासिष्टं नु) = अवश्य प्राप्त हो । (रत्नानि धत्तम्) = रत्नतुल्य श्रेष्ठ गुणों को धारण करो। (सुरीन्) = विद्वान् पुरुषों को (जरतं च) = प्राप्त होकर विद्या-लाभ करो। हे विद्वान् पुरुषो! (यूयं) = आप लोग (स्वतिभिः नः सदा पात) = उत्तम साधनों से हमारी रक्षा करें।
भावार्थ
भावार्थ- युवावस्था में स्त्री-पुरुष विद्वानों के उत्तम उपदेशों को सुनकर सुप्रेरणा प्राप्त करें। सद्गुणों को जीवन में धारण करके व्यवहार को श्रेष्ठ बनावें। वास्तव में यही विद्या प्राप्ति है। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ और अश्विनौ है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O youthful Ashvins, complementarities of nature and humanity, listen to my prayer and invocation: come home to the house of liberal donor in yajna, bear and bring the jewels of life for the givers, honour and appreciate the wise and bold, and thus protect and promote us all time with all happiness and well being.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे तरुण माणसांनो! तुमचे मुख्य कर्तव्य हे आहे, की तुम्ही गुरू-शिष्य दोघे मिळून यज्ञरूपी अग्नागारात किंवा कलाकौशल्यात्मक अग्निगृहात जेथे अनेक प्रकारच्या अस्त्र, शस्त्र इत्यादींची विद्या शिकविली जाते. तेथे जाऊन आध्यात्मिक विद्येच्या विद्वानांना व शिल्पविद्या विशारद देवांना प्रसन्न करा. अर्थात, त्यांना धन इत्यादी प्रदान करा. त्यांच्या प्रसन्नतेने तुमचे कल्याण होईल. तुम्ही त्यांच्याशी नम्रतेने वागा. तेव्हा ते तुमचे शुभचिंतन करतील.
टिप्पणी
तात्पर्य हे, की गुरू-शिष्य दोघांनी मिळून व्यावहारिक व पारमार्थिक दोन्हींची उन्नती करावी. जेथे गुरू-शिष्य दोघे अध्ययन-अध्यापनाद्वारे आपली उन्नती करीत नाहीत तेथे कधीही कल्याण होत नाही. कल्याणाची इच्छा करणारे गुरू-शिष्य, राजा-प्रजा, स्त्री-पुरुष, धनाढ्य-निर्धन व पंडित आणि मूर्ख या जोड्या जोपर्यंत एक होऊन आपली उन्नती करीत नाहीत तोपर्यंत त्यांचे कल्याण अशक्य आहे. हाच भाव कठोपनिषदात या प्रकारे वर्णिलेला आहे - $ सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै । $ तेजस्विनावधीतमस्तु माविद्विषावहै ॥ कठ. ६/१९॥ $ भावार्थ - हे परमेश्वरा! तू आम्हा दोघांचे बरोबरच रक्षण व पालन कर. आम्हा दोघांना शारीरिक व आत्मिक बल दे. आमचा स्वाध्याय उत्तम व्हावा आम्ही कुणाबरोबरही किंवा आपापसात द्वेष करता कामा नये. आम्ही दोघेही विद्याविशारद होऊन सुखपूर्वक राहावे. तू आम्हा दोघांना संसाराचे शासन चालविण्यासाठी बल दे हीच तुझ्या ठायी प्रार्थना आहे.
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