ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 69/ मन्त्र 3
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - आर्षीस्वराड्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स्वश्वा॑ य॒शसा या॑तम॒र्वाग्दस्रा॑ नि॒धिं मधु॑मन्तं पिबाथः । वि वां॒ रथो॑ व॒ध्वा॒३॒॑ याद॑मा॒नोऽन्ता॑न्दि॒वो बा॑धते वर्त॒निभ्या॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽअश्वा॑ । य॒शसा॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । दस्रा॑ । नि॒ऽधिम् । मधु॑ऽमन्तम् । पि॒बा॒थः॒ । वि । वा॒म् । रथः॑ । व॒ध्वा॑ । याद॑मानः । अन्ता॑न् । दि॒वः । बा॒ध॒ते॒ । व॒र्त॒निऽभ्या॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वश्वा यशसा यातमर्वाग्दस्रा निधिं मधुमन्तं पिबाथः । वि वां रथो वध्वा३ यादमानोऽन्तान्दिवो बाधते वर्तनिभ्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽअश्वा । यशसा । आ । यातम् । अर्वाक् । दस्रा । निऽधिम् । मधुऽमन्तम् । पिबाथः । वि । वाम् । रथः । वध्वा । यादमानः । अन्तान् । दिवः । बाधते । वर्तनिऽभ्याम् ॥ ७.६९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 69; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दस्रा, यशसा) हे परदमना यशस्विनो राजपुरुषाः, (वाम्) युष्माकं (स्वश्वा) शोभनाश्वयुक्तः (रथः) रथः (मधुमन्तम्, निधिम्) मधुररसयुक्तं निधिं (पिबाथः) पिबन् सन् (वध्वा) स्वलक्ष्ये स्थिरः (वर्त्तनिभ्याम्) गतिशीलैश्चक्रैः (वि, बाधते) बाधाः कुर्वन् (दिवः, अन्तान्) द्युलोकस्य पर्य्यन्तदेशं गत्वा (अर्वाक्, यातम्) मत्सम्मुखमागच्छतु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दस्रा, यशसा) हे शत्रुओं को दमन करनेवाले यशस्वी राजपुरुषो ! (वां) तुम्हारा (स्वश्वा) बलिष्ठ घोड़ोंवाला (रथः) रथ (मधुमन्तं, निधि) मधुररसवाले देशों की निधियों को (पिबाथः) पान करता हुआ (वध्वा) अपने उद्देश्यरूप लक्ष्य में स्थिर (वर्तनिभ्यां) गतिशील पहियों से (वि, बाधते) सब बाधा=रुकावटों को भले प्रकार दूर करता हुआ (दिवः, अन्तान्) द्युलोक के अन्त तक पहुँच कर (अर्वाक्, यातं) मेरे सम्मुख आवे ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम्हारा इन्द्रियरूप बलवान् घोड़ोंवाला रथ, जिसका सारथी बुद्धि वर्णन की गई है, जिसमें मनरूप रासें और पवित्र कर्मोंवाला जीवात्मा जिसका रथी है, वह अपने सदाचार से देश-देशान्तरों को विजय करके अर्थात् सम्पूर्ण दुराचारों के त्यागपूर्वक अमृतपान करता हुआ धर्म की अन्तिम सीमा पर पहुँच कर मुझे प्राप्त हो ॥ तात्पर्य्य यह है कि जिन राजपुरुषों का ब्रह्मचर्य्यरूप तप से शरीर हृष्ट-पुष्ट है और जिनके शरीररूपी रथ का बुद्धिरूप सारथी कुशल है, जो मनरूप रासों से इन्द्रियरूप घोड़ों को ऐसी चतुराई से चलाता है कि उनको वैदिकरूप मार्ग से तनिक भी इधर-उधर नहीं होने देता, वह राजपुरुष निर्विघ्न सम्पूर्ण संसार को विजय करते हुए अर्थात् सांसारिक विषय-वासनाओं को त्याग कर परमात्मा के सम्मुख जाता अर्थात् परमात्मपरायण होता है ॥ या यों कहो कि “अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”=अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य्य और अपरिग्रह, ये पाँच “यम” और “शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः”=शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान, ये पाँच “नियम”, इन यम-नियमों को धारण करते हुए संयमी बनकर मेरी ओर आओ, मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा ॥३॥
विषय
राजा प्रजा आदि सहयोगी जनों को उपदेश । मधुमान् निधि का रहस्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( रथः वर्त्तनिभ्यां दिवः अन्तान् बाधते) रथ चक्र धाराओं से भूमि के प्रान्त भागों को पीड़ित करता है उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! राज-प्रजाजनो ! हे रथी सारथिवत् सहयोगियो ! ( वां ) आप दोनों में ( रथः ) वेगवान् रम्य व्यवहारवान् वा स्थिर दृढ़ पुरुष (वध्वा) अपनी सहयोगिनी वधू वा कार्य भार को वहन करने वाली शक्ति के साथ ( यादमानः ) यत्नवान् होता हुआ ( वर्त्तनिभ्याम् ) अपने ऐहिक और पारमार्थिक व्यवहारों या देवयान पितृयाण मार्गों से (दिवः अन्तान् बाधते) ज्ञान के सिद्धान्तों का अवगाहन करे । हे (स्वश्वा ) उत्तम अश्वों, इन्द्रियों से युक्त ! हे (दस्त्रा) अज्ञानादि नाशक जनो ! आप दोनों ( यशसा ) यश से यशस्वी होकर ( अर्वाग् यातम् ) आगे बढ़ो और ( मधुमन्तं निधि ) मधुर ज्ञानों से युक्त, वेदमय निधि या ख़ज़ाने का (पिबाथ:) पालन और उपभोग करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ७ त्रिष्टुप् । ३ आर्षी स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
राजा-प्रजा का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- जैसे (रथः वर्त्तनिभ्यां दिवः अन्तान् बाधते) = रथ चक्रधाराओं से भूमि के प्रान्त भागों को पीड़ित करता है वैसे ही हे स्त्री-पुरुषो ! राज-प्रजाजनो ! (वां) = आप दोनों में (रथः) = रम्य व्यवहारवान्, वा स्थिर, दृढ़ पुरुष (वध्वा) = सहयोगिनी वधू वा कार्य-भार की वाहक शक्ति के साथ (यादमानः) = यत्नवान् होता हुआ (वर्त्तनिभ्याम्) = ऐहिक और परमार्थिक व्यवहारों या देवयान पितृयाण मार्गों से (दिवः अन्तान् बाधते) = ज्ञान- सिद्धान्तों का अवगाहन करे। हे (स्वश्वा) = उत्तम अश्वों, इन्द्रियों से युक्त ! हे (दत्रा) = अज्ञानादि-नाशक जनो! आप दोनों (यशसा) = यश के साथ (अर्वाग् यातम्) = आगे बढ़ो और (मधुमन्तं निधिं) = मधुर ज्ञानों से युक्त, वेद-निधि या कोश का (पिबाथ:) = पालन और उपभोग करो ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा और प्रजा दोनों मिलकर राज्य की प्रबन्ध व्यवस्था को सुदृढ़ करें। प्रयत्न पूर्वक ज्ञान सिद्धान्तों का चिन्तन करके अज्ञान का नाश तथा मधुर ज्ञान से युक्त वेदरूपी कोष की रक्षा करते हुए अपने लोक और परलोक को सुधारें।
इंग्लिश (1)
Meaning
O mighty honourable heroes commanding speedy motive forces, destroyers of jealousy, enmity and suffering, come hither to us and share the honey sweets of the human world. Let your chariot heading to the destination with your associates reach the bounds of heavenly space by its whirling wheels.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजपुरुषांनो! इंद्रियरूपी बलवान घोड्यांनी युक्त तुमचा रथ, ज्याची बुद्धी सारथी आहे. ज्यात मनरूपी लगाम व पवित्र कर्म करणारा जीवात्मा रथी आहे, तो आपल्या सदाचाराने देशदेशांतरी विजय मिळवून, संपूर्ण दुराचाराचा त्याग करून अमृतपान करीत धर्माच्या अंतिम पडावापर्यंत पोचून मला (परमेश्वराला) प्राप्त व्हावा.
टिप्पणी
तात्पर्य हे आहे, की ज्या राजपुरुषाचे ब्रह्मचर्यरूप तपाने शरीर हृष्टपुष्ट असते व ज्यांच्या शरीररूपी रथाचा बुद्धिरूपी सारथी कुशल असतो. मनरूपी लगामाने इंद्रियरूपी घोड्यांना चतुराईने चालवितो, त्याला वैदिकरूपी मार्गाने थोडेही इकडेतिकडे भटकू देत नाही. तो राजपुरुष निर्विघ्नपणे संपूर्ण जगावर विजय प्राप्त करीत अर्थात सांसारिक विषयवासनांचा त्याग करून परमात्म्यासमोर जातो. अर्थात, परमात्मपरायण असतो. ‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’ = अहिंसा, सत्य,अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह हे पाच ‘यम’ व शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियम:’= शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान हे पाच ‘नियम’ या यम नियमांना धारण करीत करीत संयमी बनून माझ्याकडे या, मी तुमचे कल्याण करीन. ॥३॥
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