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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 69/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो ह॒ स्य वां॑ रथिरा॒ वस्त॑ उ॒स्रा रथो॑ युजा॒नः प॑रि॒याति॑ व॒र्तिः । तेन॑ न॒: शं योरु॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ॒ न्य॑श्विना वहतं य॒ज्ञे अ॒स्मिन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ह॒ । स्यः । वा॒म् । र॒थि॒रा॒ । वस्ते॑ । उ॒स्राः । रथः॑ । यु॒जा॒नः । प॒रि॒ऽयाति॑ । व॒र्तिः । तेन॑ । नः॒ । शम् । योः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । नि । अ॒श्वि॒ना॒ । व॒ह॒त॒म् । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो ह स्य वां रथिरा वस्त उस्रा रथो युजानः परियाति वर्तिः । तेन न: शं योरुषसो व्युष्टौ न्यश्विना वहतं यज्ञे अस्मिन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ह । स्यः । वाम् । रथिरा । वस्ते । उस्राः । रथः । युजानः । परिऽयाति । वर्तिः । तेन । नः । शम् । योः । उषसः । विऽउष्टौ । नि । अश्विना । वहतम् । यज्ञे । अस्मिन् ॥ ७.६९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 69; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे बलिनो राजपुरुषाः ! (वाम्) यूयं (ह) निश्चयेन (अस्मिन्, यज्ञे) अत्र क्षात्रधर्म्मात्मके यज्ञे (नि) निरन्तरं (शंयोः) कल्याणं (वहतम्) प्राप्नुत, (तेन) यज्ञेन (नः) अस्मान् (उषसः, व्युष्टौ) उषःकाले प्रबोधयत, अन्यच्च (यः) यः (रथिरा) रथवानात्मा रथेन (वस्ते) आच्छादितोऽस्ति (स्यः) सः (रथः, युजानः) रथेन युक्तः (उस्रा) तेजस्वी (वर्तिः, परियाति) भवन्मार्गं सुगमं कुर्यात् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे शूरवीर राजपुरुषो ! (वां) तुम (ह) निश्चय करके (अस्मिन्, यज्ञे) इस यज्ञ में (नि) निरन्तर (शंयोः) सुख को (वहतं) प्राप्त होओ (तेन) उस यज्ञ से (नः) हमको (उसषः, व्युष्टौ) प्रातःकाल उद्बोधन करो और (यः) जो (रथिरा) रथी=आत्मा रथ से (वस्ते) आच्छादित है, (स्यः) वह (रथः, युजानः) रथ के साथ जुड़ा हुआ (उस्रा) तेजस्वी बन कर (वर्तिः, परियाति) तुम्हारे मार्गों को सुगम करे ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा आज्ञा देते हैं कि हे शूरवीर राजपुरुषो ! तुम क्षात्रधर्मरूप यज्ञ को भले प्रकार पालन करते हुए सुख को प्राप्त होओ अर्थात् अपने उस रथीरूप आत्मा को, जिसका वर्णन पीछे कर आये हैं, यम नियमादि द्वारा तेजस्वी बनाओ और सब प्रजा को उद्बोधन करो कि वे प्रातः उषाकाल में उठकर अपने कर्तव्य का पालन करें। यदि तुम इस प्रकार संस्कृत आत्मा द्वारा संसार की यात्रा करोगे, तो तुम्हारे लिए सब मार्ग सुगम हो जावेंगे, जिससे तुम द्युलोक के अन्त तक पहुँच कर मुझे प्राप्त होगे ॥५॥

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    विषय

    वर-वधू के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( रथिरा ) रथ पर विराजमान रथी सारथी के समान सहयोगी स्त्री पुरुषो ! ( वां ) आप दोनों में से ( यः ) जो प्रत्येक (रथः) स्थिर भाव से रहने वाला और गृहस्थ में रमण करने वाला, दूसरे को सुख देने वाला हो वह (उस्रा: वस्ते) किरणों को सूर्य के समान उज्ज्वल वस्त्रों को धारण किया करे । वही (युजानः) जुड़े रथ के समान स्वयं भी ( युजानः ) संयुक्त होकर ग्रन्थि जोड़कर ( वर्त्तिः परियाति ) गृहस्थ आश्रम को प्राप्त हो । वा ( वर्त्तिः परियाति ) वेदि में फेरे फिरे, परिक्रमा करे ॥ ( उषसः ) प्रभात वेला के समान कान्तिमती, कन्या की ( व्युष्टौ ) विशेष विवाह की कामना होने पर (तेन) उस पुरुष से ही (नः ) हमें (शं योः) शान्ति सुख और दुःख का नाश हो । हे ( अश्विना ) उत्तम जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! ( अस्मिन् यज्ञे ) इस यज्ञ में, अर्थात् परस्पर की संगति और दान-प्रतिदानमय सद्-व्यवहार में आप दोनों ( नि वहतम् ) निश्चय से एक दूसरे का भार अपने ऊपर धारण करो और विवाहित होकर रहो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ७ त्रिष्टुप् । ३ आर्षी स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    गृहस्थ प्रशंसा

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (रथिरा) = रथ पर स्थित (रथी) = सारथी के समान सहयोगी स्त्री-पुरुषो! (वां) = आप दोनों में से (यः) = जो प्रत्येक (रथः) = स्थिर भाव से रहने और गृहस्थ में रमनेवाला हो वह (उस्त्राः वस्ते) = किरणों को सूर्य के समान, उज्ज्वल वस्त्रों को धारण करे। वह (युजानः) = उड़े रथ तुल्य स्वयं (युजानः) = संयुक्त होकर, ग्रन्थि जोड़कर (वर्त्तिः परियाति) = गृहस्थ आश्रम को प्राप्त हो । (उषसः) = प्रभात वेला के समान (कान्तिमती) = कन्या की (व्युष्टौ) = विशेष विवाह की कामना होने पर (तेन) = उस पुरुष से ही (नः) = हमें (शं योः) = शान्ति और सुख प्राप्त हो। हे (अश्विना) = उत्तम जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो ! (अस्मिन् यज्ञे) = इस यज्ञ अर्थात् परस्पर संगति और दान-प्रतिदानमय सद्-व्यवहार में आप दोनों (नि वहतम्) = एक दूसरे को धारण करो, विवाहित होकर रहो।

    भावार्थ

    भावार्थ- कान्तियुक्त स्त्री-पुरुष परस्पर विवाहित होकर एक-दूसरे को धारण करें। जितेन्द्रिय होकर गृहस्थरूप यज्ञ अर्थात् सद्-व्यवहार के द्वारा सुख-शान्ति को प्राप्त होवें।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And that which is the master of your chariot and, wearing the splendour of the sun, rides it and goes about on the ways of life over the paths of existence and comes home to human habitations, by that very divine light and grace, O charioteers of Divinity, at the rise of dawn, bring in the peace and bliss of life to this our universal yajna of the world’s social order.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमात्मा आज्ञा करतो, की हे शूरवीर राजपुरुषांनो! तुम्ही क्षात्रधर्मरूपी यज्ञाला चांगल्या प्रकारे पालन करून सुख मिळवा. अर्थात्, ज्याचे वर्णन पूर्वी आलेले आहे त्या रथीरूपी आत्म्याला यम नियमाद्वारे तेजस्वी बनवा व सर्व प्रजेला उद्बोधन करा, की त्यांनी उष:काळी उठून आपल्या कर्तव्याचे पालन करावे. जर तुम्ही या प्रकारे सुसंस्कृत आत्म्याद्वारे जगाचा प्रवास कराल, तर तुमच्यासाठी सर्व मार्ग सुगम होतील. ज्याद्वारे तुम्ही द्युलोकाच्या अंतापर्यंत पोचून मला (परमात्म्याला) प्राप्त कराल. ॥५॥

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