ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 69/ मन्त्र 6
नरा॑ गौ॒रेव॑ वि॒द्युतं॑ तृषा॒णास्माक॑म॒द्य सव॒नोप॑ यातम् । पु॒रु॒त्रा हि वां॑ म॒तिभि॒र्हव॑न्ते॒ मा वा॑म॒न्ये नि य॑मन्देव॒यन्त॑: ॥
स्वर सहित पद पाठनरा॑ । गौ॒राऽइ॑व । वि॒ऽद्युत॑म् । तृ॒षा॒णा । अ॒स्माक॑म् । अ॒द्य । सव॑ना । उप॑ । या॒त॒म् । पु॒रु॒ऽत्रा । हि । वा॒म् । म॒तिऽभिः॑ । हव॑न्ते । मा । वा॒म् । अ॒न्ये । नि । य॒म॒न् । दे॒व॒ऽयन्तः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नरा गौरेव विद्युतं तृषाणास्माकमद्य सवनोप यातम् । पुरुत्रा हि वां मतिभिर्हवन्ते मा वामन्ये नि यमन्देवयन्त: ॥
स्वर रहित पद पाठनरा । गौराऽइव । विऽद्युतम् । तृषाणा । अस्माकम् । अद्य । सवना । उप । यातम् । पुरुऽत्रा । हि । वाम् । मतिऽभिः । हवन्ते । मा । वाम् । अन्ये । नि । यमन् । देवऽयन्तः ॥ ७.६९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 69; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नरा) हे शौर्यवन्तो राजपुरुषाः ! यूयं (विद्युतम्) विद्युता आकृष्टा (गौरा, इव) पृथिवी इव (तृषाणा) आकृष्टाः (अद्य) इदानीम् (अस्माकम्) अस्माकं (सवना) यज्ञं (उपयातम्) आगच्छत (हि) यतः (वाम्) युष्मान् (पुरुत्रा) सर्वत्र स्थले (मतिभिः, हवन्ते) बुद्धिभिर्जुह्वति (वाम्) यूयं (नि) निश्चयेन (अन्ये) अन्यस्मिन् मार्गे (देवयन्तः) अकिञ्चनाः सन्ताः (मा यमन्) मा गच्छत ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नरा) हे शूरवीर राजपुरुषो ! तुम (विद्युतं) विद्युत् के आकर्षण से आकर्षित हुई (गौरा, इव) पृथिवी के समान (तृषाणा) आकर्षित हुए (अद्य) आज (अस्माकं) हमारे (सवना, उप, यातं) इस यज्ञ को आकर प्राप्त हो, (हि) क्योंकि (वां) तुमको (पुरुत्रा) कई स्थानों में (मतिभिः, हवन्ते) बुद्धि द्वारा बोधन किया जाता है। (वाम्) तुम लोग (नि) निश्चय करके (अन्ये) किसी अन्य मार्ग में (देवयन्तः) दीन होकर (मा, यमन्) मत चलो ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! जिस प्रकार विद्युदादि शक्ति से आकर्षित हुआ पृथिवीमण्डल सूर्य्य की ओर खिंचा चला आता है, इसी प्रकार तुम लोग क्षात्रधर्म रूपी यज्ञ की ओर आकर्षित होकर आओ, यद्यपि तुम्हारी वासनायें तुम्हें दीन बनाने के लिए दूसरी ओर ले जाती हैं, परन्तु तुम उनसे सर्वथा पृथक् रह कर इस क्षात्र धर्म रूप यज्ञ में ही दृढ़ रहो, क्योंकि शूरवीर क्षत्रिय ही इस यज्ञ का होता बन सकता है, अन्य भीरु तथा कातर पुरुष इस यज्ञ में आहुति देने का अधिकारी नहीं ॥६॥
विषय
वर-वधू के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(गौरा इव तृषाणा सवना) जिस प्रकार प्यासे दो मृग जलों को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हे ( नरा ) स्त्री पुरुषो ! हे नर नारी जनो ! ( अस्माकं ) हम में से (गौरा) विद्या वाणी में निष्णात होकर ( विद्युतम् उप यातम् ) विशेष कान्ति को प्राप्त करो और (तृषाणा) कामनावान् या अत्युत्सुक होकर ( अद्य ) आज ( सवना ) यज्ञों, ऐश्वर्यों और पुत्र प्रसवादि गृह्योचित कार्यों को (उप पातम्) प्राप्त होओ। विद्वान् पुरुष (वां) आप दोनों को ( पुरुत्रा ) बहुत से कार्यों में ( हवन्ते हि ) स्तुति करते हैं । ( अन्ये ) दूसरे विपरीत भाव वाले शत्रुजन ( देवयन्तः ) द्यूतक्रीड़ा या व्यवहार करते हुए ( वाम् मा नियमन ) आप दोनों को न बांध लें, न फंसालें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः – १, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ७ त्रिष्टुप् । ३ आर्षी स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
गृहस्थ का कर्त्तव्य
पदार्थ
पदार्थ- (गौरा इव तृषाणा सवना) = जैसे प्यासे दो मृग जलों को प्राप्त करते हैं वैसे हे (नरा) = स्त्री-पुरुषो! (अस्माकं) = हम में से (गौरा) = विद्या वाणी में निष्णात होकर (विद्युतम् उप यातम्) = विशेष कान्ति को प्राप्त करो और (तृषाणा) = कामनावान् या अति उत्सुक होकर (अद्य) = आज (सवना) = यज्ञों, ऐश्वर्यों और पुत्र-प्रसवादि गृहोचित कार्यों को (उप यातम्) = प्राप्त होओ। विद्वान् पुरुष (वां) = आप दोनों की (पुरुत्रा) = बहुत से कार्यों में हवन्ते हि स्तुति करते हैं। (अन्ये) = दूसरे शत्रुजन (देवयन्तः) = द्यूतक्रीड़ा आदि व्यवहार करते हुए (वाम् मा नियमन्) = आप दोनों को न फँसा लें।
भावार्थ
भावार्थ- स्त्री-पुरुष विद्या एवं व्यवहार में निष्णात होकर यज्ञ, पुरुषार्थ व सन्तानोत्पत्ति आदि गृहोचित कार्यं करें। जुआ खेलना आदि बुरे कार्यों से सदैव बचे रहें ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O leaders of humanity, pioneers of light, eager like a planet drawn by the sun, come today to our yajnic social order and bring in the dawn of a new day. The all time seekers of Divinity through eternity have invoked you with the best of their thought, will and action. Let not anyone stop you on way.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजपुरुषांनो! ज्या प्रकारे विद्युत इत्यादी शक्तीने आकर्षित झालेले पृथ्वीमंडल सूर्याकडे ओढले जाते. त्याच प्रकारे तुम्ही क्षात्रधर्मरूपी यज्ञाकडे आकर्षित होऊन या. तुमच्या वासना तुम्हाला दीन बनविण्यासाठी दुसरीकडे घेऊन जातात; परंतु तुम्ही त्यांच्यापासून सर्वस्वी पृथक राहून या क्षात्रधर्मरूपी यज्ञात दृढ राहा. कारण शूरवीर क्षत्रियच या यज्ञाचा होता बनू शकतो. इतर भित्र्या व घाबरट पुरुषाला या यज्ञात आहुती देण्याचा अधिकार नाही. ॥६॥
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