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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - आर्षीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ॒त्मा ते॒ वातो॒ रज॒ आ न॑वीनोत्प॒शुर्न भूर्णि॒र्यव॑से सस॒वान् । अ॒न्तर्म॒ही बृ॑ह॒ती रोद॑सी॒मे विश्वा॑ ते॒ धाम॑ वरुण प्रि॒याणि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒त्मा । ते॒ । वातः॑ । रजः॑ । आ । न॒वी॒नो॒त् । प॒शुः । न । भूर्णिः॑ । यव॑से । स॒स॒ऽवान् । अ॒न्तः । म॒ही इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । इ॒मे इति॑ । विश्वा॑ । ते॒ । धाम॑ । व॒रु॒ण॒ । प्रि॒याणि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आत्मा ते वातो रज आ नवीनोत्पशुर्न भूर्णिर्यवसे ससवान् । अन्तर्मही बृहती रोदसीमे विश्वा ते धाम वरुण प्रियाणि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्मा । ते । वातः । रजः । आ । नवीनोत् । पशुः । न । भूर्णिः । यवसे । ससऽवान् । अन्तः । मही इति । बृहती इति । रोदसी इति । इमे इति । विश्वा । ते । धाम । वरुण । प्रियाणि ॥ ७.८७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 87; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वरुण) हे वरुणरूपपरमात्मन् ! (वातः) वायुः (ते) तव (आत्मा) आत्मस्वरूपोऽस्ति तथा त्वमेव (रजः) जलं (आ) सम्यक् (नवीनोत्) नवीनभावेन प्रेरयसि (न) यथा (यवसे) तृणादिना (पशुः) पशुः गवादिः (ससवान्) समृद्धो भवति, तथैव प्राणात्मको वायुः सर्वेषां जन्तूनां (भूर्णिः) पोषकः, (बृहती, मही) अनयोरतिदीर्घयोः (रोदसी) द्यावापृथिव्योः (अन्तः) मध्ये (इमे, विश्वा) सर्व इमे लोकाः (ते) तव (धाम) प्रतिष्ठास्थानानि सन्ति, ये (प्रियाणि) सर्वजीवप्रियाः सन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वरुण) हे वरुणरूप परमात्मन् ! (वातः) वायु (ते) तुम्हारा (आत्मा) आत्मवत् है, आप ही (रजः) जलों को (आ) भले प्रकार (नवीनोत्) नवीन भावों द्वारा प्रेरित करते हैं। (न) जिस प्रकार (यवसे) तृणादिकों से (पशुः) पशु (ससवान्) सम्पन्न होता है, इसी प्रकार प्राणरूप वायु सब जीवों का (भूर्णिः) पोषक होता है। (बृहती मही) इस बड़ी पृथिवी और (रोदसी) द्युलोक के (अन्तः) मध्य में (इमे, विश्वा) यह सब विश्व (ते) तुम्हारे (धाम) स्थान हैं, जो (प्रियाणि) सब जीवों को प्रिय हैं ॥२॥

    भावार्थ

    “वृणोति सर्वमिति वरुणः”=जो इस चराचर ब्रह्माण्ड को अपनी शक्तिद्वारा आच्छादान करे, उसका नाम “वरुण” है। एकमात्र परमात्मा ही ऐसा महान् है, जो सब विश्ववर्ग को अपनी शक्तिद्वारा आच्छादन करके अपनी महत्ता से सर्वत्र ओत-प्रोत हो रहा है, इसलिए उसका नाम वरुण है, जैसा कि “ईशावास्यमिदं  सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्” यजु० ४०।१॥ इत्यादि मन्त्रों में अन्यत्र भी वर्णन किया है कि इस संसार में जो कुछ वस्तुमात्र दृष्टिगत हो रहा है, वह सब ईश्वर की सत्ता से व्याप्त है। यही भाव इस मन्त्र में प्रकारान्तर से वर्णन किया है कि वायु उस वरुण परमात्मा के प्राणसमान और यह निखिल ब्रहमाण्ड उसके स्थान हैं, जो जीवमात्र को प्रिय हैं ॥ तात्पर्य्य यह है कि परमात्मा की रचनारूप ये ब्रह्माण्ड ऐसे अद्भुत हैं कि जीवमात्र इनको अमृततुल्य मानते हुए आनन्दपूर्वक उपभोग करते हैं, परन्तु जो प्राणी उस परब्रह्म के आज्ञापालक हैं, उन्हीं को यह ब्रह्माण्ड सदैव अमृतमय प्रतीत होता है, इसी अभिप्राय से कहा है कि “आनन्दादेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति” उसी आनन्दस्वरूप परमात्मा से ये सब प्राणी उत्पन्न होते और आनन्द से ही जीते हैं। अर्थात् जिस प्रकार सुषुप्ति अवस्था में जीव आनन्द का भोक्ता होता है, इसी प्रकार प्रलयावस्था में भी आनन्द का भोग करता है, इसका नाम प्रकृतिलय अवस्था है। इसमें और मुक्ति अवस्था में इतना भेद है कि इस अवस्था में आविद्यिक=अविद्या की वृत्ति बनी रहती है और मुक्ति अवस्था में यह वृत्ति नहीं होती। यद्यपि प्रलय और सुषुप्ति में आनन्द होता है, परन्तु वह मुक्ति के समान अविद्यारहित आनन्द नहीं होता। “आनन्दादेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते०” मुक्त जीव आनन्द भोगते हुए ही इस संसार में आते और सदाचारी होने के कारण यहाँ भी आनन्द भोगते और अन्त में उसी चिद्घन आनन्दस्वरूप ब्रह्म में लय हो जाते हैं। इस प्रकार सदाचारपूर्वक परमात्मा की आज्ञापालन करनेवाले पुरुषों को यह संसार सदैव आनन्दमय होता है ॥२॥

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    विषय

    परमेश्वर का व्यवस्थित शासन ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) सर्वव्यापक प्रभो ! ( वातः रजः ) जिस प्रकार महान् वायु धूलि को (आ नवीनोत् ) सब तरफ उड़ा देता, प्रेरित करता है । उसी प्रकार ( वातः ) बलशाली, गतिमान् ( ते आत्मा ) तेरा व्यापक सामर्थ्य ही ( रजः ) ब्रह्माण्डों में फैले धूलि कणवत् समस्त लोकों को ( आ नवीनोत् ) सब ओर संञ्चालित करता है । इसी प्रकार ( ते आत्मा वातः ) तेरा आत्मा जीव भूत प्राण वायु देह में ( रजः आ नवीनोत् ) रक्तप्रवाह को सब ओर प्रेरित करता है । ( यवसे पशुः न ससवान् भूर्णिः ) घास, भूसा आदि पर पलने वाला जिस प्रकार अन्नादि से लादा जाकर स्वामी के भरण पोषण करने में समर्थ होता है उसी प्रकार यह ( वातः ) वायु वा ( ते आत्मा ) तेरा महान् सामर्थ्य ही ( ससवान् ) अन्नादि भोग्य ऐश्वर्य से समृद्ध होकर पशु ( भूर्णिः ) समस्त विश्व का भरण पोषण करने में समर्थ होता है । ( इमे बृहती मही रोदसी अन्तः ) इन बड़ी, विशाल, सुख देने वाले आकाश भूमि या सूर्य-भूमि दोनों के बीच में ( ते ) तेरे ( विश्वा ) समस्त ( प्रियाणि ) प्रिय लगने वाले ( धाम ) तेज और विश्व को धारण करने वाले वा जीवों के आधारभूत लोक वा नाना सामर्थ्य विद्यमान हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। वरुणो देवता॥ छन्द:– १ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३, ५ आर्षी त्रिष्टुप्। ४, ६, ७ त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    व्यापक परमेश्वर

    पदार्थ

    पदार्थ-हे (वरुण) = सर्वव्यापक प्रभो !( वातः रजः) = जैसे वायु धूलि को (आ नवीनोत्) = सब तरफ उड़ाता है वैसे ही (वातः) = बलशाली (ते आत्मा) = तेरा व्यापक सामर्थ्य (रजः) = ब्रह्माण्डों में फैले, धूलि-कणवत् लोकों को (आ नवीनोत्) = सञ्चालित करता है। अध्यात्म में- (ते आत्मा वातः) = तेरा आत्मा, जीवभूत प्राण देह में (रजः आ नवीनोत्) = रक्तप्रवाह को प्रेरित करता है । (यवसे पशुः न ससवान् भूर्णि:) =घास, भूसा आदि पर पलनेवाला पशु जैसे अन्नादि से लादा जाकर स्वामी के भरण-पोषण में समर्थ होता है वैसे ही यह (वातः) = वायु (वा ते आत्मा) = तेरा महान् सामर्थ्य ही (ससवान्) = अन्नादि ऐश्वर्य से समृद्ध होकर (भूर्णि:) = विश्व के भरण-पोषण में समर्थ होता है । (इमे बृहती मही रोदसी अन्तः) = इन विशाल, सुख देनेवाले आकाश - भूमि या सूर्य-भूमि के बीच (ते) = तेरे (विश्वा) = समस्त (प्रियाणि) = प्रिय (धाम) = तेज और विश्वधारक लोक, सामर्थ्य हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-समस्त लोक-लोकान्तरों का सञ्चालन ईश्वर अपनी परमेश्वरी शक्ति से कर रहा है। विश्व का भरण-पोषण भी वही करता है। उसीका तेज सूर्य आदि में चमक रहा है। यह सब उसकी व्यापकता से ही सम्भव है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Your spirit, O Varuna, sets the currents of energy in motion like winds and energises the cosmic particles anew, once asleep all, now rushing restless for food for existence like a horse moving for grass. O lord immanent and transcendent, all this great expansive universe of heaven and earth, all these abodes of existence, are homes of life dear to you, dear to the living forms.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ‘वृणोति सर्वमिति वरुण:’ = जो चराचर ब्रह्मांडाला आपल्या शक्तीद्वारे आच्छादित करतो त्याचे नाव ‘वरुण’ आहे. एकमेव परमात्माच असा महान आहे, की जो सर्व विश्वाला आपल्या शक्तीद्वारे आच्छादन करतो व आपल्या महानतेने सर्वत्र ओतप्रोत होत आहे. त्यासाठी त्याचे नाव ‘वरुण’ आहे. जसे ‘ईशावास्यमिदँ सर्वं यत्किं जगत्यां जगत्’ ॥यजु. ४०।१॥ इत्यादी मंत्रांत इतरत्र वर्णन केलेले आहे, की या जगात जो काही पदार्थ दिसतो तो सर्व ईश्वराच्या सत्तेने व्याप्त आहे. हाच भाव या मंत्रात प्रकारांतराने वर्णन केलेला आहे, की वायू त्या वरुण परमात्म्याच्या प्राणाप्रमाणे आहे व अखिल ब्रह्मांडात पसरलेला आहे, तसेच सर्व जीवांना प्रिय आहे.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे, की परमेश्वराने निर्माण केलेले ब्रह्मांड असे अद्भुत आहे, की जीवमात्र त्यास अमृततुल्य मानत आनंदपूर्वक उपभोग घेतात; परंतु जे प्राणी त्या परब्रह्माची आज्ञा पाळतात त्यांनाच हे ब्रह्मांड सदैव अमृताप्रमाणे वाटते. याच अभिप्रायाने म्हटलेले आहे ‘आनन्दादेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति’ त्याच आनंदस्वरूप परमेश्वरापासून सर्व प्राणी उत्पन्न होतात व आनंदाने जगतात. ज्या प्रकारे सुषुप्तीमध्ये जीव आनंदाचा भोक्ता असतो त्याच प्रकारे प्रलयावस्थेतही आनंदाचा भोग करतो. याचेच नाव प्रकृतिलय अवस्था आहे. यात व मुक्तीत असा भेद आहे, की आविद्यिक = यात अविद्येची वृत्ती असते व मुक्ती अवस्थेत ही वृत्ती नसते. जरी प्रलय व सुषुप्तीमध्ये आनंद असतो; परंतु तो मुक्तीप्रमाणे आनंद नसतो. ‘आनन्दादेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते’ मुक्त जीव आनंद भोगतच या जगात येतात व सदाचारी असल्यामुळे येथेही आनंद भोगत शेवटी त्याच चिद्घन आनंदस्वरूप ब्रह्मात लय पावतात. या प्रकारे सदाचारपूर्वक परमेश्वराची आज्ञापालन करणाऱ्या पुरुषांना हा संसार आनंदमय असतो. ॥२॥

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