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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अन्ति॑ चि॒त्सन्त॒मह॑ य॒ज्ञं मर्त॑स्य रि॒पोः । नोप॑ वेषि जातवेदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्ति॑ । चि॒त् । सन्त॑म् । अह॑ । य॒ज्ञम् । मर्त॑स्य । रि॒पोः । न । उप॑ । वे॒षि॒ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्ति चित्सन्तमह यज्ञं मर्तस्य रिपोः । नोप वेषि जातवेदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्ति । चित् । सन्तम् । अह । यज्ञम् । मर्तस्य । रिपोः । न । उप । वेषि । जातऽवेदः ॥ ८.११.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (जातवेदः) हे सर्वकार्याणां ज्ञातः ! (रिपोः, मर्तस्य) शत्रुजनस्य (अन्ति, चित्, सन्तम्) समीपे वर्तमानमपि (यज्ञम्) क्रतुम् (न) नहि (उपवेषि) जानासि (अह) हि ॥४॥

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    विषयः

    ईश्वरप्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे जातवेदः=सर्वज्ञ ! रिपोः=संसारशत्रोः । मर्तस्य=दुष्टपुरुषस्य । अन्ति=अन्तिकम् । चिद्=समृद्धमपि । सन्तम्=भवन्तम् । यज्ञम् । न अह=नैव अहशब्द एवार्थः । उपवेषि=कामय ॥४ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे सब कर्मों के ज्ञाता ! (रिपोः, मर्तस्य) शत्रुजन के (अन्ति, चित्, सन्तम्, यज्ञम्) अपने समीप में होनेवाले यज्ञ को भी (न, उपवेषि, अह) आप नहीं ही जानते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    हे सब चराचर प्राणिजात के शुभाशुभकर्मों को जाननेवाले परमात्मन् ! शत्रुजनों से होनेवाले हिंसारूप यज्ञ को आप नहीं जानते अर्थात् अवश्य जानते हैं, सो आप उसका फल उनको यथायोग्य ही प्रदान करेंगे ॥४॥

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    विषय

    ईश्वर प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (जातवेदः) हे सर्ववित् ! सर्वधन ईश ! जो (मर्तस्य+रिपोः) मनुष्य जगत् का शत्रु है, उसको (यज्ञम्) यज्ञ यदि (अन्तिचित्+सन्तम्) सर्वगुणसम्पन्न भी हो, तथापि हे ईश ! उस यज्ञ का आप (अह) कदापि भी (न+उप+वेषि) आदर न करें ॥४ ॥

    भावार्थ

    दुष्टजन और उनके कर्म आदरणीय नहीं हैं ॥४ ॥

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    विषय

    राजा, विद्वान् व अग्रणी नायक आचार्य के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( जात-वेदः ) समस्त पदार्थों को जानने हारे प्रभो ! हे कृतविद्य विद्वन् ! ( रिपोः मर्त्तस्य ) पापी पुरुष के ( अन्तिचित् सन्तं यज्ञं ) अति समीप विद्यमान यज्ञ को ( न उप वेषि ) प्राप्त नहीं होता,नहीं स्वीकार करता, तू शत्रुता के भाव को रखने वाले मनुष्य के यज्ञ, पूजा, आदर भाव वा दान को स्वीकार नहीं करता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१ आर्ची भुरिग्गायत्री। २ वर्धमाना गायत्री। ३, ५—७, ९ निचृद् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। ८ गायत्री। १० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    रिपु से किया गया 'यज्ञ' यज्ञ नहीं

    पदार्थ

    [१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! आप (अन्ति चित् सन्तम्) = अत्यन्त समीप होते हुए भी, अर्थात् अतिप्रिय होते हुए भी (यज्ञम्) = यज्ञ को (अह) = निश्चय से (न उपवेषि) = नहीं चाहते। यह यज्ञ आपको प्रिय नहीं होता, यदि यह (रिपोः मर्तस्य) = शत्रुभूत मनुष्य का होता है। अर्थात् जो मनुष्य औरों के साथ शत्रुता करता रहता है, उसका यज्ञ आपको प्रिय नहीं होता। [२] यज्ञों के द्वारा प्रभु-पूजन अवश्य होता है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः'। परन्तु इन यज्ञों को करते हुए हमें देववृत्ति का बनना है। हम पड़ोसियों के साथ वैरभाव रखते हुए यज्ञों से प्रभु को रिझा नहीं सकते।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम देववृत्ति के बनकर, शत्रुता को तिलाञ्जलि देकर यज्ञों को करें। ये ही यज्ञ हमें प्रभु का प्रिय बनायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Jataveda, lord omniscient, you do not join or bless the yajna of an enemy of humanity even if the yajna and the performer is said to be close to divinity otherwise.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सर्व चराचर प्राण्यांच्या शुभाशुभ कर्मांना जाणणाऱ्या परमेश्वरा, शत्रूकडून होणाऱ्या हिंसारूपी यज्ञाला तू जाणत नाहीस असे नाही, तर अवश्य जाणतोस. त्यासाठी तू त्यांना यथायोग्य फळ प्रदान करशील. ॥४॥

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