ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
आ ते॑ व॒त्सो मनो॑ यमत्पर॒माच्चि॑त्स॒धस्था॑त् । अग्ने॒ त्वांका॑मया गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । व॒त्सः । मनः॑ । य॒म॒त् । प॒र॒मात् । चि॒त् । स॒धऽस्था॑त् । अग्ने॑ । त्वाम्ऽका॑मया । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते वत्सो मनो यमत्परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वांकामया गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । वत्सः । मनः । यमत् । परमात् । चित् । सधऽस्थात् । अग्ने । त्वाम्ऽकामया । गिरा ॥ ८.११.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (वत्सः) भवतो रक्ष्यः याज्ञिकः (त्वां, कामया, गिरा) त्वां कामयमानया वाचा (परमात्, सधस्थात्, चित्) दिव्यात् यज्ञस्थानात् (ते, मनः, आयमत्) तव ज्ञानं वर्धयति ॥७॥
विषयः
ईश्वरस्तुतिः ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वव्यापिन् ! पितः । अयं ते=तव वत्सः पुत्रः । ते=तव मनः । परमात् चित्=उत्कृष्टादपि । सधस्थात्=स्वस्थानात् । त्वां कामया=त्वामिच्छन्त्या । गिरा=वाण्या । आयमत्=स्वाभिमुखी कुर्य्यात् ॥७ ॥
हिन्दी (5)
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (वत्सः) आपका रक्ष्य यह याज्ञिक (त्वां, कामया, गिरा) आपकी कामनावाली वाणी से (परमात्, सधस्थात्, चित्) परमदिव्य यज्ञस्थान से (ते, मनः, आयमत्) आपके ज्ञान को बढ़ा रहा है ॥७॥
भावार्थ
हे परमात्मन् ! आपसे रक्षा किया हुआ याज्ञिक पुरुष कामनाओं को पूर्ण करनेवाली वेदवाणियों द्वारा आपके ज्ञान को विस्तृत करता अर्थात् आपके ज्ञान का प्रचार करता हुआ प्रजा को आपकी ओर आकर्षित करता है कि सब मनुष्य आपको ही पूज्य मानकर आपकी ही उपासना में प्रवृत्त हों ॥७॥
विषय
ईश्वर की स्तुति ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वव्यापिन् पिता ! क्या यह (ते+वत्सः) तेरा कृपापात्र पुत्र (ते+मनः) तेरे मन को (परमात्+चित्) परमोत्कृष्ट (सधस्थात्) स्थान से भी (त्वां कामया) तेरी इच्छा करनेवाली (गिरा) वाणी के द्वारा (आ+यमत्) अपनी ओर खेंच सकता है ॥७ ॥
भावार्थ
परमात्मा सर्वत्र विद्यमान है, उसको वही प्रसन्न कर सकता है, जो उसकी आज्ञाओं को बरतते हैं ॥७ ॥
विषय
सर्वशासक तेजोमय प्रभु का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) प्रकाश स्वरूप ! ( वत्सः ) तेरी स्तुति करने हारा उपासक तेरे पुत्रवत् प्रिय ( परमात् चित् सधस्थात् ) परम, सर्वोत्कृष्ट तेरे साथ एकत्र रहने की स्थिति से ( ते ) तुझे प्राप्त करने के लिये ( त्वां-कामया गिरा ) तुझे चाहने वाली, भक्ति भरी वाणी से ( मनः ) अपने मन को ( आ यमत् ) सब ओर से रोके और तेरे ही में लगावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१ आर्ची भुरिग्गायत्री। २ वर्धमाना गायत्री। ३, ५—७, ९ निचृद् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। ८ गायत्री। १० आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
Bhajan
वैदिक मन्त्र
आ ते वत्सो मनो यमत् परमाच्चित्सधस्थात्।
अग्ने त्वां कामया गिरा।।ऋ•८.११.७ सा•पू१/१/१/८
वैदिक भजन११४१ वां
राग मालगुंजी
गायन समय मध्य रात्रि
ताल अद्धा
भाग--१
उत्तम पद से तुम हो सुशोभित
सर्वोच्च स्थान पे हो तुम
हे प्यारे भगवन्!
कैसे पाऊं उत्कृष्टपद को
प्यारे आत्मानन्द (२)
उत्तम पद.........
मैं अल्पज्ञ हूं अल्प समर्थ हूं
अल्प बुद्धि हूं भ्रमित आवर्त हूं
फिर भी हूं पुत्र तुम्हारा भगवन्
उत्तम पद.........
पुत्र हूं, वत्स हूं, आत्मज अमर हूं
चाहे हीन, पतित, निम्न स्तर हूं
हूं तो अमर चिन्मय हूं आत्मन्
उत्तम पद.........
धाम तुम्हारा, मेरा भी धाम है
पिता चरणों में मेरा सहस्थान है
सधस्थ स्थान है तेरे चरनन
उत्तम पद.........
दिव्यातिदिव्य स्थान है तुम्हारा
पुत्र तुल्य अधिकार है हमारा
देना है प्रेम स्नेह तुम्हें अतिगहन
उत्तम पद ........
भाग २
उत्तम पद से तुम हो सुशोभित
सर्वोच्च स्थान पे हो तुम
हे प्यारे भगवन् (२)
कैसे पाऊं उत्कृष्ट पद को
प्यारे आत्मानंद (२)
उत्तम पद...........
सर्वशक्तिमान हो सर्वज्ञ
तुम्हरे सामने हूं अल्पज्ञ
फिर भी तुम्हें पाना है अद्यतन।।
उत्तम पद..............
प्रेम श्रद्धा भक्ति से तुमको
पिघलाऊं आशुतोष हो तुम तो
वैखरी-वाणी से करूँ अनुरंजन ।।
उत्तम पद.........
पाना है वात्सल्य तुम्हारा
तड़प रहा मैं प्रेम का मारा
आंतर ब्रह्म वाणी की है तड़पन
उत्तम पद........
कैसे.........
५.९.२०२
९.०० रात्रि
उत्कृष्ट= सर्वोत्तम, अच्छे से अच्छा
अल्पज्ञ = कम समझ वाला, थोड़ा जानेवाला
आवर्त = विचारों का मन में रह-रह के आना
आत्मज = पुत्र
पतित = गिरा हुआ
चिन्मय = पूर्ण तथा विशुद्ध ज्ञानमय
सहस्थान = एक साथ रहने वाला स्थान
सधस्य = सहस्थान
गहन = गहरा
अद्यतन = आज से, चालू ,ताजा
आशुतोष = शीघ्र पिघलने वाला, दयालु
मनोरंजन = दिल बहलानेवाला ,एंटरटेनमेंट
ब्रह्मवाणी= वेद की वाणी
🕉🧘♂️प्रथम श्रृंखला का १३४ वां वैदिक भजन और आज तक का ११४१ वां वैदिक भजन🎧
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं❗🙏
Vyakhya
मैं तुझे चाहता हूं
हे परमात्मा तुम्हारा स्थान बहुत ऊंचा है। तुम्हारे उत्कृष्ट पद को मैं कैसे पाऊं? तुम जिस दिव्य धाम में रहते हो, जिस सर्वशक्तिमय, सर्वज्ञानमय, परमानंद माया लोक में तुम्हारा निवास है, उसे परम स्थान तक मैं अल्पज्ञशक्ति, तुच्छ जीव, कैसे पहुंच सकता हूं? परन्तु नहीं, मैं भी आखिरकार तुम्हारा पुत्र हूं, वत्स हूँ, प्यारा अमृत-आत्मज हूं। मैं चाहे कैसा हीन व पतित होऊं पर स्वरूपत: अमर चिन्मय आत्मा हूं, अतः तुम्हारा धाम मेरा भी धाम है, तुम्हारा ऊंचे- से- ऊंचा स्थान मेरा सहस्थान है,'सधस्थ 'है।
तुम्हारे दिव्य से दिव्य स्थान से तुम्हारे पुत्र का अधिकार कैसे हट सकता है ! मैं तुम्हें अपने प्रेम द्वारा, तुम्हारे दूर- से- दूर ऊंचे- से-ऊंचे पद से खींच लाऊंगा।
हे पित: ! मुझे सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ बनने की क्या जरूरत है? मैं तो अपने अगाध प्रेम से, अपनी अनन्य भक्ति से, तेरे मन को काबू कर लूंगा। तेरे मन को पा लूंगा। फिर मुझे और क्या चाहिए? हे मेरे अग्ने! हे मेरे जीवन! मैं तुम्हें अपनी सर्वशक्ति से चाह रहा हूं, कामना कर रहा हूं। आत्मा में तुमने जो वाणी नाम्नी आत्मशक्ति रखी है, मैं उसकी संपूर्ण शक्ति से तुम्हें ही खींच रहा हूं । मैं अपनी आंतर और बाह्य वाणी की समस्त शक्ति को तुम्हारे मिलन के लिए ही खर्च कर रहा हूं । मन में तेरी ही चाहत है मन में तेरा ही जाप है,तेरी ही रटन है 'वैखरी' वाणी में भी तेरा ही नाम है,तेरा स्तोत्र पाठ है;शरीर की चेष्टाओं से भी जो कुछ अभिव्यक्त होता है,वह तेरी लगन है, तेरे पाने की तड़प है । क्या तू अब भी ना मिलेगा? मैं तेरा वत्स इस तरह से हे पित:! तेरे मन को हर लूंगा। तू चाहे कितने ऊंचे स्थान का वासी हो, पर तेरे मन को जीत के ही छोडूंगा। मेरा प्रेम, मेरी भक्ति,तेरे मन को खींच लेगी और फिर तेरे मन को तेरे प्रेम व वात्सल्य को मुझे अपनाना होगा।
विषय
स्तवन-मन का नियमन-मोक्ष
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! (ते वत्सः) = आपका प्रिय यह साधक (परमात् चित् सधस्थात्) = सर्वोत्कृष्ट (सह) = स्थानरूप मोक्ष से, इस मोक्ष को प्राप्त करने के हेतु से (मनः आयमत्) = मन को सर्वथा वश में करता है। [२] हे प्रभो ! (त्वां कामया) = आपको ही चाहनेवाली (गिरा) = स्तुति वाणी के द्वारा यह साधक मन को वश में करता है। यह मन का नियमन ही सर्वमहान् साधना है। प्रभु की स्तुति वाणियों का उच्चारण मनोनिरोध का साधन बनता है। निरुद्ध मन मोक्ष को प्राप्त करानेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन मनोनिरोध का उपाय बने। निरुद्ध मन मोक्ष प्राप्ति का कारण हो । -
इंग्लिश (1)
Meaning
The dear dedicated sage adores you and with words of love and faith prays for your attention from the highest heaven of light.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमात्मा, तुझ्याकडून रक्षित याज्ञिक पुरुष कामना पूर्ण करणाऱ्या वेदवाणीद्वारे तुझे ज्ञान विस्तृत करतो. अर्थात, तुझ्या ज्ञानाचा प्रचार करत प्रजेला तुझ्याकडे आकर्षित करतो, की सर्व माणसांनी तुलाच पूज्य मानून तुझ्याच उपासनेत प्रवृत्त व्हावे. ॥७॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal