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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 16/ मन्त्र 10
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र॒णे॒तारं॒ वस्यो॒ अच्छा॒ कर्ता॑रं॒ ज्योति॑: स॒मत्सु॑ । सा॒स॒ह्वांसं॑ यु॒धामित्रा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽने॒तार॑म् । वस्यः॑ । अच्छ॑ । कर्ता॑रम् । ज्योतिः॑ । स॒मत्ऽसु॑ । स॒स॒ह्वांस॑म् । यु॒धा । अ॒मित्रा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रणेतारं वस्यो अच्छा कर्तारं ज्योति: समत्सु । सासह्वांसं युधामित्रान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽनेतारम् । वस्यः । अच्छ । कर्तारम् । ज्योतिः । समत्ऽसु । ससह्वांसम् । युधा । अमित्रान् ॥ ८.१६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 16; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (वस्यः, अच्छा, प्रणेतारम्) अभिमुखं धनं कर्तारम् (समत्सु, ज्योतिः, कर्तारम्) संग्रामेषु पौरुषं दातारम् (युधा, अमित्रान्) योद्धृद्वारा शत्रून् (ससह्वांसम्) अभिभवितारम्, वर्धन्ति ॥१०॥

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    विषयः

    पुनस्तमेवार्थमाह ।

    पदार्थः

    पुनरिन्द्रमेव विशिनष्टि । कीदृशमिन्द्रम् । वस्यः=वसीयः । प्रशस्ततरम् । वसु=धनम् । अच्छ=आभिमुख्येन । प्रणेतारम्=प्रापयितारम् । पुनः । समत्सु=संसारेषु संग्रामेषु वा । ज्योतिः=प्रकाशम् । कर्तारम्=विधातारम् । उभयत्र ताच्छीलिकस्तृन् । पुनः । युधा=संग्रामेण । अमित्रान्=संसारस्य शत्रुभूतान् मनुष्यान् । ससह्वांसम्=अभिभूतवन्तमभिभावयितारम्= विनाशकम् ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    जो परमात्मा (वस्यः, अच्छा, प्रणेतारम्) धनों को अभिमुख करनेवाला (समत्सु, ज्योतिः, कर्तारम्) संग्राम में पौरुष देनेवाला (युधा, अमित्रान्) योद्धाओं द्वारा शत्रुओं को (ससह्वांसम्) अभिभूत करनेवाला है, उसको विद्वान् लोग प्रकाशित करते हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा सम्पूर्ण धनों का देनेवाला, युद्ध में अपने भक्तों को पौरुष देनेवाला अर्थात् न्याययुक्त योद्धाओं का सहायक और न्यायपथ से च्युत योद्धाओं को अभिभूत=पराजित करनेवाला है, वही सबका रक्षक और सदा उपासनायोग्य है ॥१०॥

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    विषय

    पुनः उसी अर्थ को कहते हैं ।

    पदार्थ

    इस ऋचा के द्वारा पुनः इन्द्र के ही विशेषण कहते हैं । (अच्छ) अच्छे प्रकार वह इन्द्र उपासकों की ओर (वस्यः) प्रशस्त धन (प्रणेतारम्) ले जानेवाला है । पुनः (समत्सु) संसार में यद्वा संग्रामों में (ज्योतिः+कर्त्तारम्) प्रकाश देनेवाला है तथा (युधा) संग्राम द्वारा (अमित्रान्) संसार के शत्रुभूत मनुष्यों को (ससह्वांसम्) निर्मूल करनेवाला है ॥१० ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! यदि उसकी शरण में अन्तःकरण से प्राप्त होंगे, तब निश्चय है कि वह तुमको धन की ओर ले जायगा, महान् से महान् संग्राम में तुमको ज्योति देगा और अन्त में तुम्हारे निखिल शत्रुओं का समूलोच्छेद करेगा ॥१० ॥

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    विषय

    स्तुति योग्य प्रभु के गुणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    और वे मनुष्य ( वस्यः ) उत्तम ऐश्वर्य को ( अच्छ प्रणेतारम् ) साक्षात् प्रयाण करने वाले और ( समत्सु ) संग्रामवत् संदिग्ध, भययुक्त संकट के अवसरों में भी ( ज्योतिः कर्त्तारम् ) प्रकाश करने वाले, (युधा) युद्ध द्वारा ( अभित्रान् ससह्रांसं ) स्नेह से रहित शत्रुवर्ग के पराजित करने वाले की ही विद्वान् लोग स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इरिम्बठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ९—१२ गायत्री। २—७ निचृद् गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    धन प्रणयन-ज्योतिष्करण-शत्रु-मर्षण

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार मनुष्य उस प्रभु का स्तवन करते हैं जो वस्यः अच्छा प्रशस्त धन की ओर (प्रणेतारम्) = ले जानेवाले हैं। और समत्सु संग्रामों में (ज्योतिः) = प्रशस्त ज्ञान को (कर्तारम्) = करनेवाले हैं। इस ज्ञानाग्नि के द्वारा ही तो शत्रु भस्म होते हैं। [२] ये प्रभु ही (युधा) = युद्ध के द्वारा (अमित्रान्) = शत्रुओं को (सासह्वांसम्) = कुचल देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्रशस्त धन को प्राप्त कराते हैं। संग्राम में ज्ञानाग्नि द्वारा शत्रुओं को भस्म करते हैं। युद्ध द्वारा शत्रुओं को कुचल देते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All people, communities and nations adore and exalt Indra who brings wealth, peace and prosperity to humanity, creates light and hope for their battles of life, and challenges and destroys enemies by fighting them out.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जर त्याला अंत:करणापासून शरण जाल तर तो निश्चयपूर्वक तुम्हाला धन देईल. मोठ्यातल्या मोठ्या युद्धात तुम्हाला ज्योती (प्रकाश) देईल व शेवटी तुमच्या संपूर्ण शत्रूचा समूळ उच्छेद करून टाकील ॥१०॥

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