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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 16/ मन्त्र 9
    ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तम॒र्केभि॒स्तं साम॑भि॒स्तं गा॑य॒त्रैश्च॑र्ष॒णय॑: । इन्द्रं॑ वर्धन्ति क्षि॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । अ॒र्केभिः॑ । तम् । साम॑ऽभिः । तम् । गा॒य॒त्रैः । च॒र्ष॒णयः॑ । इन्द्र॑म् । व॒र्ध॒न्ति॒ । क्षि॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमर्केभिस्तं सामभिस्तं गायत्रैश्चर्षणय: । इन्द्रं वर्धन्ति क्षितय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । अर्केभिः । तम् । सामऽभिः । तम् । गायत्रैः । चर्षणयः । इन्द्रम् । वर्धन्ति । क्षितयः ॥ ८.१६.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 16; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (चर्षणयः, क्षितयः) तद्द्रष्टारो जनाः (तम्, इन्द्रम्) तं परमात्मानम् (अर्केभिः) अर्चनैर्यजुर्भिः (तम्, सामभिः) तमेव सामभिः (तम्, गायत्रैः) तमेव गायत्र्याद्युपेताभिर्ऋग्भिः (वर्धन्ति) प्रकाशयन्ति ॥९॥

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    विषयः

    इन्द्रगुणाः प्रदर्श्यन्ते ।

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! चर्षणयस्तत्त्वज्ञा होतारो मानवाः तमेवेन्द्रम् । अर्कैरर्चनीयैर्मन्त्रैः । वर्धन्ति=वर्धयन्ति । तस्य विविधान् गुणान् गायन्तीत्यर्थः । तमेव सामगाः । सामभिः=सामवेदैर्गानात्मकैः । वर्धन्ति । पुनः । क्षितयः=विज्ञानाधारेषु निवसन्तो मनुष्याः । तमेवेन्द्रम् । गायत्रैः=गायत्रीप्रभृतिभिः छन्दोभिः । वर्धन्ति । ईदृश इन्द्र एव पूज्योऽस्तीति शिक्षते ॥९ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (चर्षणयः, क्षितयः) उसके द्रष्टा विद्वान् (तम्, इन्द्रम्) उस परमात्मा को (अर्केभिः) यजुर्मन्त्रों से (तम्, सामभिः) उसी को साम से (तम्, गायत्रैः) उसी को गायत्र्यादि सहित ऋचाओं से (वर्धन्ति) प्रकाशित करते हैं ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा के द्रष्टा योगीजन, जिन्होंने उसके स्वरूप को भले प्रकार जाना है, वे उसको यजुरादि चारों वेदों से प्रकाशित करते हैं, क्योंकि परमात्मा का पूर्ण ज्ञान वेदों द्वारा ही हो सकता है। वेद परमात्मा की वाणी होने से उनमें वर्णित परमात्मा का स्वरूपज्ञान तथा उसकी महिमा का मान भले प्रकार होता है, अन्यथा नहीं, अतएव प्रत्येक पुरुष वेदों के अध्ययन द्वारा उसका स्वरूपज्ञान प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करे ॥९॥

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    विषय

    इन्द्र के गुण दिखलाये जाते हैं ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (चर्षणयः) तत्त्वज्ञ होतृरूप मानव (अर्कैः) अर्चनीय मन्त्रों से (तम्) उसी परमप्रसिद्ध इन्द्र को (वर्धन्ति) बढ़ाते हैं अर्थात् उसके विविध गुणों को गाते हैं । (सामभिः) उद्गातृरूप मनुष्य सामगानों से (तम्) उसी को बढ़ाते हैं (तम्) उसी को (गायत्रैः) गायत्री आदि छन्दों से बढ़ाते हैं (क्षितयः) विज्ञानाधार पर निवासकर्ता मनुष्य विविध प्रकार से (इन्द्रम्) इन्द्र की ही स्तुति प्रार्थना करते हैं ॥९ ॥

    भावार्थ

    हे विवेकी जनों ! जहाँ देखो, क्या यज्ञों में, क्या अन्यत्र, सर्वत्र ही बुद्धिमान् जन भी उसी का यशोगान करते हैं । आप भी उसी को गाओ, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥९ ॥

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    विषय

    स्तुति योग्य प्रभु के गुणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( तम् इन्द्रं ) उस परमैश्वर्यवान् प्रभु को ( चर्षणयः क्षितयः ) ज्ञान के द्रष्टा विद्वान् लोग ( अर्केभिः ) अर्चना करने योग्य मन्त्रों से और ( तं सामभिः ) उसी को साम गानों से और ( तं गायत्रैः ) उसीको गायत्री आदि नाना छन्दों से ( वर्धन्ति ) बढ़ाते हैं। उसी का गुण गान कर उसकी महिमा का विस्तार करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इरिम्बठिः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ९—१२ गायत्री। २—७ निचृद् गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'ऋग्यजु साम' मन्त्रों द्वारा प्रभु का गायन

    पदार्थ

    [१] (चर्षणयः) = तत्त्वद्रष्टा पुरुष (तम्) = उस प्रभु को ही (अर्केभिः) = स्तुति साधन ऋचाओं से (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं। (तम्) = उस प्रभु को ही (सामभिः) = साम-मन्त्रों से स्तुत करते हैं और (तम्) = उस प्रभु को ही (गायत्रैः) = गायन करनेवाले का त्राण करनेवाले यजु मन्त्रों से याद करते हैं। [२] (क्षितयः) = इस शरीर में उत्तमता से निवास करते हुए गतिशील पुरुष (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ही (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-ऋचाओं, यजु व साम मन्त्रों से प्रभु का ही गायन होता है। उत्तम निवास व गतिवाले मनुष्य प्रभु का ही वर्धन करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All people, all communities, all nations adore and exalt Indra, with inspiring verses of Rgveda, with sweet songs of Samaveda and with the exhilarating gayatri verses.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विवेकी लोकांनो! जेथे पाहू तेथे यज्ञात किंवा इतरत्र सर्वत्रच बुद्धिमान लोकही त्याचे यशोगान गातात. तुम्हीही त्याचेच गान गा. अशी येथे शिकवण आहे. ॥९॥

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