ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 2
श॒तानी॑केव॒ प्र जि॑गाति धृष्णु॒या हन्ति॑ वृ॒त्राणि॑ दा॒शुषे॑ । गि॒रेरि॑व॒ प्र रसा॑ अस्य पिन्विरे॒ दत्रा॑णि पुरु॒भोज॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तानी॑काऽइव । प्र । जि॒गा॒ति॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । हन्ति॑ । वृ॒त्राणि॑ । दा॒शुषे॑ । गि॒रेःऽइ॑व । प्र । रसाः॑ । अ॒स्य॒ । पि॒न्वि॒रे॒ । दत्रा॑णि । पु॒रु॒ऽभोज॑सः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे । गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥
स्वर रहित पद पाठशतानीकाऽइव । प्र । जिगाति । धृष्णुऽया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे । गिरेःऽइव । प्र । रसाः । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुऽभोजसः ॥ ८.४९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Like the commander of a hundred armies, with his power and force, Indra rushes forward to fight and win, and he destroys the demons of darkness and want for the charitable giver. The gifts of this universal giver of food and sustenance feed and support humanity like streams flowing down from the mountains.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराकडून प्राप्त झालेल्या शक्ती अतूट व दृढ असतात. प्रभूच्या भक्तांना पदार्थांबरोबर या शक्तीही मिळतात. यावरच जग जगते. ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
जैसे (शतानीक इव) सैकड़ों सेनाओं का स्वामी सेनापति (प्रजिगाति) प्रकृष्टता से विजयी होता है; वैसे ही वह प्रभु भी जो 'शतानीक' (सैकड़ों शक्तियों से युक्त) है; वह इन द्वारा प्रकृष्ट विजयी है; (धृष्णुया) साहस व दृढ़ता के गुणों से वह (दाशुषे) अपने लिये समर्पित भक्त के हित के लिये (वृत्राणि) उसके मार्ग की सभी विघ्न-बाधाओं को (हन्ति) मिटा देता है; (अस्य) इस (पुरुभोजसः) अनेकों का पालन-पोषण करने वाले के (दत्राणि) दिये गये ऐश्वर्य दान [पदार्थ एवं शक्तियाँ] (प्रपिन्विरे) जगत् को इस प्रकार तृप्त करते हैं (इव) जैसे कि (गिरेः) मेघ से प्राप्त (रसाः) जल॥२॥
भावार्थ
प्रभु से प्राप्त शक्तियाँ अटूट व दृढ़ हैं--प्रभु-भक्त को पदार्थों के साथ ही ये शक्तियाँ भी मिलती हैं। इन्हीं पर संसार आश्रित है॥२॥
विषय
मेघ वा पर्वत से झरते जलों के तुल्य प्रभु के ऐश्वर्य।
भावार्थ
वह इन्द्र ऐश्वर्यवान्, शत्रुओं का नाश करने हारा (शत-अनीकः इव ) सैकड़ों सेनाओं और बलों का स्वामी, सेनापति के समान ( प्र जिगाति ) सबका विजय करता है और ( दाशुषे ) दानशील, करप्रद राष्ट्र के हित के लिये ( वृत्राणि ) विघ्नकारी शत्रुओं का ( धृष्णुया ) अपनी धर्षणकारिणी शक्ति से ( हन्ति ) नाश करता है, ( गिरेः इव रसा ) पर्वत से झरने वाले जलों के समान ( अस्य पुरुभोजसः ) इस बहुतों के पालक, नाना भोग्य ऐश्वर्य के स्वामी के ( दत्राणि ) नाना प्रकार के दान ( पिन्विरे ) प्रजाओं को पुष्ट करते हैं।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अनन्तशक्ति- अनन्तदान
पदार्थ
[१] (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के हेतु से शतानीका इव सैंकड़ों सैन्यों के समान (प्रजिगाति) = ये प्रभु गति करते हैं। सैंकड़ों सेनाएँ भी वह शत्रुसंहार कार्य नहीं कर पातीं, जो इस प्रभु द्वारा सम्पन्न हो जाता है। ये प्रभु दाशुषे दाश्वान् पुरुष के लिए प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले पुरुष के लिए वृत्राणि हन्ति - ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करते हैं। [२] गिरेः= पर्वत से प्रवाहित होनेवाले रसाः इव रसों के समान अस्य इस पुरुभोजसः = खूब ही पालन करनेवाले प्रभु के दत्राणि दान प्रपिन्विरे प्रजाओं का पोषण करते हैं। इस शक्ति भावार्थ- प्रभु अपने प्रति अर्पण करनेवाले के लिए अनन्तशक्ति प्रदान करते हैं, से उपासक वासनारूप शत्रुओं का विनाश करता है। प्रभु के दान उपासक का पोषण करते हैं।
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