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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 3
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ त्वा॑ सु॒तास॒ इन्द॑वो॒ मदा॒ य इ॑न्द्र गिर्वणः । आपो॒ न व॑ज्रि॒न्नन्वो॒क्यं१॒॑ सर॑: पृ॒णन्ति॑ शूर॒ राध॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । सु॒तासः॑ । इन्द॑वः । मदाः॑ । ये । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । आपः॑ । न । व॒ज्रि॒न् । अनु॑ । ओ॒क्य॑म् । सरः॑ । पृ॒णन्ति॑ । शू॒र॒ । राध॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा सुतास इन्दवो मदा य इन्द्र गिर्वणः । आपो न वज्रिन्नन्वोक्यं१ सर: पृणन्ति शूर राधसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । सुतासः । इन्दवः । मदाः । ये । इन्द्र । गिर्वणः । आपः । न । वज्रिन् । अनु । ओक्यम् । सरः । पृणन्ति । शूर । राधसे ॥ ८.४९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, celebrated lord of the thunderbolt, may the songs of adoration presented by the celebrant with prayers for desired wealth and means of success, flowing spontaneous like ecstatic streams of soma, please and exhilarate you to fullness of kindness and grace as flowing waters, brooks and rivers, fill their original home, the lake and the sea.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाच्या भक्तीचा आश्रय एकमात्र परमैश्वर्यवान परमेश्वरच आहे. भक्तीच्या आनंदात विभोर होऊन भक्त केवळ स्वत:च संन्तृप्त होत नाही तर भगवानही त्याच्यावर प्रसन्न होतो व अशी प्रेरणा देतो की, तो त्याच्या गुणांच्या प्राप्तीसाठी उत्सुक व्हावा. ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) भक्त की वाणी से वन्दित, स्तुत (इन्द्र) परम ऐश्वर्यसम्पन्न परमेश्वरः (ये) जो (मदाः) तृप्ति देने वाले (इन्दवः) आनन्ददायक (सुतासः) भक्त द्वारा निष्पादित भक्तिरस हैं, वे (शूर) हे स्वयं शौर्यसम्पन्न तथा भक्त को उसके जीवनसंघर्ष में शौर्य की प्रेरणा देने वाले! वज्रिन्! साधन युक्त! (राधसे) भक्त को संसिद्धि प्राप्त कराने हेतु (त्वा) आपको (आपृणन्ति) चारों ओर से तृप्त करते हैं--कैसे? जैसे कि (आपः) जल (ओक्यम्) अपने गृह--आश्रयभूत महाजलाशय को (आ पृणन्ति) भर कर संतुष्ट करते हैं॥३॥

    भावार्थ

    साधक की भक्ति का आश्रय एकमात्र वह ऐश्वर्यसम्पन्न परमेश्वर ही है। उसकी भक्ति के आनन्द में मस्त होकर भक्त न केवल स्वयं सन्तृप्त होता है, प्रभु भी उससे प्रसन्न होते हैं और ऐसी प्रेरणा प्रदान करते हैं कि वह उनके गुणों की प्राप्ति-हेतु उत्सुक हो जाए॥३॥

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    विषय

    जलाशय के जलों के तुल्य उसके पूरक ऐश्वर्य।

    भावार्थ

    हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा भजन करने योग्य ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( ये ) जो ( मदाः ) तृप्तिकारक ( इन्दवः ) ऐश्वर्यवान्, आर्द्रहृदय ( सुतासः ) अभिषिक्त जन ( त्वा आ पृणन्ति ) तुझे हर्षजनक हैं हे ( शूर ) शूरवीर ! हे ( वज्रिन् ) वीर्यवन् ! वे सब (राधसे) धन को प्राप्त करने के लिये ही ( ओक्यं सरः आपः न ) अपने आश्रयभूत सरोवर को पूर्ण करने वाले जलप्रवाहों के समान ( त्वा आपृणन्ति ) तुझे ही पूर्ण करते हैं, तुझे ही प्रसन्न करते, तेरी सेवा करते, तुझ में ही आश्रय लेते हैं। उसी प्रकार ये समस्त उत्पन्न सूर्यादि लोक भी उसी परमेश्वर को पूर्ण करते, उसी में आश्रय पाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोमरक्षण व सफलता

    पदार्थ

    [१] हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों का सम्भजन करनवाले शूर शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वा) = तुझे (सुतासः) = उत्पन्न हुए-हुए (ये मदा:) = जो उल्लासजनक (इन्दवः) = सोमकण हैं, वे (पृणन्ति) = पूरित करते हैं। इस प्रकार पूरित करते हैं (न) = जैसे (ओक्यं सरः) = निवासस्थान व आश्रयभूत तालाब को (आपः) = जल (ननु) = निश्चय से पूरित करनेवाले होते हैं। [२] इन सोमकणों को अपने में पूरित करके ही तू (राधसे) = सफलता के लिए होता है। ये सोमकण तुझे शक्तिसम्पन्न बनाते हैं। यह शक्ति तेरी सफलता का साधन बनती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान प्राप्ति में लगे रहना व जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करना ही सोमरक्षण का साधन है। सुरक्षित सोम सफलता को देनेवाला है।

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