ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिग्बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ न॒: स्तोम॒मुप॑ द्र॒वद्धि॑या॒नो अश्वो॒ न सोतृ॑भिः । यं ते॑ स्वधावन्त्स्व॒दय॑न्ति धे॒नव॒ इन्द्र॒ कण्वे॑षु रा॒तय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । स्तोम॑म् । उप॑ । द्र॒वत् । हि॒या॒नः । अश्वः॑ । न । सोतृ॑ऽभिः । यम् । ते॒ । स्व॒धा॒ऽव॒न् । स्व॒दय॑न्ति । धे॒नवः॑ । इन्द्र॑ । कण्वे॑षु । रा॒तयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ न: स्तोममुप द्रवद्धियानो अश्वो न सोतृभिः । यं ते स्वधावन्त्स्वदयन्ति धेनव इन्द्र कण्वेषु रातय: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । स्तोमम् । उप । द्रवत् । हियानः । अश्वः । न । सोतृऽभिः । यम् । ते । स्वधाऽवन् । स्वदयन्ति । धेनवः । इन्द्र । कण्वेषु । रातयः ॥ ८.४९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of joy and fulfilment, love and generosity, come to accept our song of adoration like a courser urged on and rushing to its destination, a song created like soma by the pressers which the profuse voices of the wise and your gifts showered on the celebrants sweeten all the more and energise.
मराठी (1)
भावार्थ
बुद्धिमान प्रशंसकांच्या संगतीत साधकाची इंद्रिये ही त्या परमप्रभूचे प्रशंसक बनतात. ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यसाधक मेरे मन! (स्वधावन्) हे अमृतरूप गुणयुक्त! (यम्) जिस (ते) तेरे (स्तोमम्) स्तुतिरूप गुणप्रकाश को (कण्वेषु) बुद्धिमानों की (रातयः) मित्र (धेनवः) तुझ साधक की पालन-पोषण कर्ता धेनुरूपा इन्द्रियाँ (स्वदयन्ति) स्वादिष्ट बना लेती हैं उस गुणप्रकाश को (सोतृभिः हियानः अश्वः न) प्रेषकों से प्रेरित शीघ्र गतिवाले अश्व की भाँति (नः आ उपद्रवत्) हमारे समीप पहुँचा॥५॥
भावार्थ
बुद्धिमान् स्तोताओं के सहवास में साधक की इन्द्रियाँ भी परम प्रभु की अभ्यस्त स्तोता हो जाती हैं॥५॥
विषय
गोरसों के तुल्य सुखद उसके दान।
भावार्थ
हे ( स्वधावन् ) अन्नपते ! हे ऐश्वर्य को धारण करने वाली शक्ति के स्वामिन् ! ( ते ) तेरे ( कण्वेषु ) विद्वान् पुरुषों के निमित्त ( रातयः ) दिये नाना दान ही ( यं स्तोमम् ) जिस स्तुतियोग्य पद को ( धेनवः ) वाणियों या गोरसों के समान ( स्वदयन्ति ) अधिक स्वादु, सुखद कर देते हैं तू उस ( नः स्तोमम् ) हमारे स्तुत्य वचन या पद को ( सोतृभिः हियानः ) अभिषिक्त वर्ग से प्रेरित होकर ( अश्वः न ) अश्व के समान ( आ उप द्रवद् ) प्राप्त हो। इति चतुर्दशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभुस्तवन व दानशीलता
पदार्थ
[१] (सोतृभिः) = सोम का अभिषव [ उत्पादन] करनेवालों से शरीर में सोम का सम्पादन करनेवालों से (हियान:) = प्रेरित किये जाते हुए, हे प्रभो! आप (नः स्तोमम्) = हमारी स्तुति को (आ उपद्रवत्) = प्राप्त होइये । हम आपके स्तोता बनें। आप हमारे लिए (अश्वः न) = लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले अश्व के समान हैं। आपके द्वारा ही तो हम जीवनयात्रा को पूर्ण कर सकेंगे। [२] हे (स्वधावन्) = आत्मधारणशक्तिवाले (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यं) = जिस आपके सोम का (धेनवः) = [धेट् पाने] सोम को शरीर में पीनेवाले स्तोता लोग (स्वदयन्ति) = आस्वाद लेते हैं, वे (कण्वेषु) = बुद्धिमन् पुरुषों में (रातयः) = दानशील होते हैं। भोगवृत्ति से ऊपर उठकर दानशील बनकर ही वे सोमरक्षण में समर्थ होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिए आवश्यक है कि हम प्रभुस्तवन करें और दानशील बनकर भोगवृत्ति से ऊपर उठें।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal