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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒ने॒हसं॑ प्र॒तर॑णं वि॒वक्ष॑णं॒ मध्व॒: स्वादि॑ष्ठमीं पिब । आ यथा॑ मन्दसा॒नः कि॒रासि॑ न॒: प्र क्षु॒द्रेव॒ त्मना॑ धृ॒षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ने॒हस॑म् । प्र॒ऽतर॑णम् । वि॒वक्ष॑णम् । मध्वः॑ । स्वादि॑ष्ठम् । ई॒म् । पि॒ब॒ । आ । यथा॑ । म॒न्द॒सा॒नः । कि॒रासि॑ । नः॒ । प्र । क्षु॒द्राऽइ॑व । त्मना॑ । धृ॒षत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनेहसं प्रतरणं विवक्षणं मध्व: स्वादिष्ठमीं पिब । आ यथा मन्दसानः किरासि न: प्र क्षुद्रेव त्मना धृषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनेहसम् । प्रऽतरणम् । विवक्षणम् । मध्वः । स्वादिष्ठम् । ईम् । पिब । आ । यथा । मन्दसानः । किरासि । नः । प्र । क्षुद्राऽइव । त्मना । धृषत् ॥ ८.४९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of joy and fulfilment, pray accept the innocent, overflowing, inspiring song of adoration, enjoy it like a draught of soma sweeter than honey, so that happy and joyous at heart and soul, ignoring all minor considerations, you may pour out your gifts of generosity like showers of mist.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    साधकाने प्रभू भक्तीच्या रसात डुबकी मारली पाहिजे. त्यात रमल्यामुळे त्याच्या दुर्भावना नष्ट होतील व तो आपला हा दिव्य आनंद इतरांनाही प्रदान करील. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे इन्द्र--परम ऐश्वर्य हेतु साधक आत्मा! (ईम्) इस दिव्यानन्द को, जो (अनेहसम्) सदा रक्षणीय है (प्रतरणम्) प्रवर्धक अर्थात् उन्नतिदाता है, (विवक्षणम्) विशेष रूप से स्फूर्तिदाता है, (मध्वः स्वादिष्ठम्) सामान्य मधु से भी अधिक स्वादिष्ट है, उसका तू (पिब) उपभोग कर; यथा जिस तरह उसका उपभोग करके, (मन्दसानः) सजीव हुआ तू (धृषत्) शत्रुभावनाओं को धक्का देता हुआ (क्षुद्रा इव) मधुमक्खी के समान (नः) हम अन्य साधकों की ओर भी (आ, किरासि) उसे फेंकेगा॥४॥

    भावार्थ

    साधक को भगवद्भक्ति के रस में विभोर होना चाहिये; उसका उपभोग करने से उसकी दुर्भावनायें मिटेंगी और फिर वह अपना यह दिव्य आनन्द दूसरों को भी प्रदान करेगा॥४॥

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    विषय

    मधुवत् उसके मधुर सुख।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन् ! तू ( मध्वः ) मधुर अन्न और ज्ञान का (अनेहसं ) निष्पाप ( प्र-तरणम् ) दुःखों से पार उतारने वाला, ( विवक्षणं ) विविध वचनों से स्तुत्य, वा विविध हर्षदायक ( स्वादिष्ठम् ) अति स्वादु रस का ( पिब ) पान कर ( यथा ) जिस प्रकार ( मन्दसानः ) तृप्त होकर ( क्षुद्रा इव ) क्षुद्र मधु मक्खी के समान ( त्मना धृषत् ) स्वयं अपने सामर्थ्य से शत्रुगण पर विजयी होकर ( नः ) हमें भी ( प्र किरासि ) नाना ऐश्वर्य यथायोग्य रूप से प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'अनेहसं प्रतरणं विवक्षणम्'

    पदार्थ

    [१] हे जीव ! तू (ईम्) = निश्चय से (मध्वः) = जीवन को मधुर बनानेवाले सोम के (स्वादिष्ठं) = अतिशयेन मधुर रस को (पिब) = पी। यह रस (अनेहसं) = तुझे निष्पाप बनानेवाला हैं, (प्रतरणं) = सब रोगों व वासनाओं से तरानेवाला है, (विवक्षणं) = विशिष्टरूप से उन्नत करनेवाला है। [२] प्रभु कहते हैं कि हे जीव! तू (न:) = हमारे इस सोमरस को (मन्दसानः) = उल्लास का अनुभव करता हुआ (यथा) = जैसे-जैसे (आकिरासि) = शरीर में चारों ओर विकीर्ण करनेवाला होता है, तो (त्मना) = स्वयम् (क्षुद्रा इव) = वासना आदि प्रबल शत्रुओं को भी तुच्छ शत्रुओं की तरह (प्रधृषत्) = अभिभूत करता है। इन वासनारूप शत्रुओं का कुचलना तेरे लिए आसान हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम हमें निष्पाप, रोगों व वासनाओं को तैरनेवाला व उन्नतिशील बनाता है । सोमरक्षक पुरुष उल्लसित होकर प्रबल शत्रुओं को भी आसानी से जीत लेता है।

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