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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यद्ध॑ नू॒नं यद्वा॑ य॒ज्ञे यद्वा॑ पृथि॒व्यामधि॑ । अतो॑ नो य॒ज्ञमा॒शुभि॑र्महेमत उ॒ग्र उ॒ग्रेभि॒रा ग॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ह॒ । नू॒नम् । यत् । वा॒ । य॒ज्ञे । यत् । वा॒ । पृ॒थि॒व्याम् । अधि॑ । अतः॑ । नः॒ । य॒ज्ञम् । आ॒शुऽभिः॑ । म॒हे॒ऽम॒ते॒ । उ॒ग्रः । उ॒ग्रेभिः॑ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्ध नूनं यद्वा यज्ञे यद्वा पृथिव्यामधि । अतो नो यज्ञमाशुभिर्महेमत उग्र उग्रेभिरा गहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ह । नूनम् । यत् । वा । यज्ञे । यत् । वा । पृथिव्याम् । अधि । अतः । नः । यज्ञम् । आशुऽभिः । महेऽमते । उग्रः । उग्रेभिः । आ । गहि ॥ ८.४९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Illustrious Indra, whether you are at some yajna or somewhere on earth or anywhere else, from there come to our yajna by the fastest and mightiest forces, illustrious lord, wisest of the wise.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जोपर्यंत साधक धारणा-ध्यान-समाधी इत्यादी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष साधक व्यवहारात आपले मन घालत नाही तोपर्यंत सदैव जवळ असणाऱ्या परमेश्वराचा अनुभव येत नाही. त्या परमेश्वराला सदैव उपस्थित समजूनच सर्व सत्कर्म केले पाहिजे.॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (महेमते) पूज्य बुद्धिशक्ति के धनी भगवन्! (यद्ध नूनम्) आप जहाँ भी हैं, निश्चय से हैं; आप (यद्वा) या तो (यज्ञे) किसी परोक्ष सत्कर्म आदि में विद्यमान हैं अथवा यहीं (पृथिव्याम् अधि) भूलोक में अधिष्ठाता हैं। [आप जहाँ कहीं भी हैं] (अतः) उस स्थान से (उग्रः) नितान्त बलिष्ठ आप (आशुभिः) तीव्रगामिनी (उग्रैः) अति बलशाली शक्तियों सहित (नः) हमारे (यज्ञे) धर्म-अर्थ-काम-मोक्षसाधक व्यवहार में (आ गहि) आइये--सम्मिलित होइये॥७॥

    भावार्थ

    जब तक साधक धारणा-ध्यान-समाधि आदि धर्मार्थ-काम-मोक्षसाधक व्यवहार में मन नहीं लगाता तब तक उसे सर्वदा सहस्थित भी परमेश्वर अनुभव नहीं होता; परमप्रभु को सदा उपस्थित समझकर ही सब सत्कर्म करने चाहिये॥७॥

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    विषय

    राजा से प्रजा की प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    ( यत् ह ) चाहे जहां भी हो ( यद् वा यज्ञे ) चाहे यज्ञ में हो, ( यद् वा पृथिव्याम् अधि ) चाहे तू पृथिवी पर हो, हे (महे मते) महा मतिमन् ! हे ( उग्र ) बलवन् ! तू ( नः ) हमारे ( यज्ञम् ) यज्ञ को ( उग्रेभिः आशुभिः ) बलवान्, शीघ्रगामी अश्वों सहित (अतः) इस स्थान से (आ गहि ) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    आशुभिः उग्रेभिः

    पदार्थ

    [१] (यत् ह नूनं) = आप निश्चय से शीघ्र ही (नः) = हमारे (यज्ञं) = इस जीवन-यज्ञ को (आशुभिः) = शीघ्रगति वाले (उग्रेभिः) = तेजस्वी इन्द्रियाश्वों से (आगहि) = प्राप्त होइये। [२] हे (उग्र) = तेजस्विन्! (महेमते) = महान् बुद्धि [ज्ञान] वाले प्रभो (यद् वा यज्ञे) = चाहे हम लोकहित के लिए होनेवाले यज्ञात्मक कर्मों में हों, (यद् वा) = और चाहे (पृथिव्याम् अधि) = इस शरीररूप पृथिवी के लिए ही हम कर्मों में लगे हों आप (इतः) = इन कर्मों की पूत के हेतु से [नः] = हमें अवश्य प्राप्त होइये ही ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से हम शीघ्रता ये कर्मों में व्याप्त होनेवाले तेजस्वी इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करके यज्ञात्मक कर्मों को व शरीर रक्षणात्मक कर्मों को करनेवाले हों।

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