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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    ए॒ताव॑तस्त ईमह॒ इन्द्र॑ सु॒म्नस्य॒ गोम॑तः । यथा॒ प्रावो॑ मघव॒न्मेध्या॑तिथिं॒ यथा॒ नीपा॑तिथिं॒ धने॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ताव॑तः । ते॒ । ई॒म॒हे॒ । इन्द्र॑ । सु॒म्नस्य॑ । गोऽम॑तः । यथा॑ । प्र । आवः॑ । म॒घ॒ऽव॒न् । मेध्य॑ऽअतिथिम् । यथा॑ । नीप॑ऽअतिथि, । धने॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतावतस्त ईमह इन्द्र सुम्नस्य गोमतः । यथा प्रावो मघवन्मेध्यातिथिं यथा नीपातिथिं धने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतावतः । ते । ईमहे । इन्द्र । सुम्नस्य । गोऽमतः । यथा । प्र । आवः । मघऽवन् । मेध्यऽअतिथिम् । यथा । नीपऽअतिथि, । धने ॥ ८.४९.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of grandeur, glorious as you are, we pray of you the wealth of the peace and prosperity of sense, mind and wisdom by which you protect and promote the man of dynamic intelligence, and the sage of imagination who dives deep into the mysteries of life in the struggle to understand the riddles of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा साधकाच्या जीवनाचे लक्ष्य परम पवित्र परमेश्वर असतो, तेव्हा त्याला गहन विचार करण्याचा सराव होतो. तो सर्व प्रकारे समृद्ध व सुखी होतो. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (मघवन्) ऐश्वर्य के स्वामी हे परमेश्वर! आप यथा जिस तरह (मेध्यातिथिम्) पावनता की ओर सदा गतिशील को (प्र, अवः) खूब सन्तुष्ट करते हैं और (यथा) जिस तरह (नीपातिथिम्) विचार सागर की गहराइयों में जाने के अभ्यस्त को (धने) सफलता देते हैं; हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् प्रभु! हम (एतावतः) इतने ही--ऐसे ही (गोमतः) गौ आदि पशुओं से व ज्ञान-विज्ञान आदि प्रकाश से समृद्ध (सुम्नस्य) सुख की (ईमहहे) कामना करते हैं। ९॥

    भावार्थ

    साधक के जीवन का लक्ष्य जब परम पवित्र प्रभु हो जाय और वह गहन विचार करने का अभ्यस्त हो जाय तो वह भरे-पूरे सब प्रकार से समृद्ध हो सुख का पात्र बन जाता है॥९॥

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    विषय

    राजा से प्रजा की प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ( यथा ) जिस प्रकार भी हो तू ( मेध्यातिथिं ) अन्नादि से सत्कार करने योग्य अतिथिवत् पूज्य पुरुष को ( प्र अवः ) उत्तम रीति से तृप्त एवं प्रसन्न करता है, और (यथा) जिस प्रकोर और जितने ( धने ) धन में तू (नीपातिथिं) सन्मार्ग दिखने वाले अतिथिवत् पूज्य पुरुष का ( प्रावः ) आदर सत्कार करता है हम भी ( ते ) तुझ से हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( एतावतः ) इतने ( गोमतः सुम्नस्य ) गौ आदि पशुओं से समृद्ध सुखप्रद धन की ( ईमहे ) याचना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मेध्यातिथिम् नीपातिथिम्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवन् प्रभो ! हम (ते) = आपसे (एतावतः) = इतने (गोमतः) = प्रशस्त ज्ञान की वाणियोंवाले (सुम्नस्य) = प्रभुस्तवन की (ईमहे) = याचना करते हैं। हम यही चाहते हैं कि स्वाध्याय द्वारा ज्ञान का वर्धन करें और स्तवन द्वारा जीवन के लक्ष्य का सदा स्मरण करें। [२] हम इस 'गोमान् सुम्न' की याचना इसलिए करते हैं कि (यथा) = जिससे, हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (मेध्यातिथिं) = मेध्य पवित्र प्रभु को अतिथि बनानेवाले मुझे (प्राव:) = प्रकर्षेण रक्षित करें और (यथा) = जिससे (नीपातिथिं) = [ नीप = deep] उस गम्भीरतम प्रभु को अतिथि बनानेवाले मुझे धने-धन के निमित्त रक्षित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्वाध्याय व स्तवन द्वारा 'पवित्र व गम्भीर' प्रभु को अपना अतिथि बनाएँ । यही ऐश्वर्य प्राप्ति का मार्ग है।

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