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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 49 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 49/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒ग्रं न वी॒रं नम॒सोप॑ सेदिम॒ विभू॑ति॒मक्षि॑तावसुम् । उ॒द्रीव॑ वज्रिन्नव॒तो न सि॑ञ्च॒ते क्षर॑न्तीन्द्र धी॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रम् । न । वी॒रम् । नम॑सा । उप॑ । से॒दि॒म॒ । विऽभू॑तिम् । अक्षि॑तऽवसुम् । उ॒द्रीऽइ॑व । व॒ज्रि॒न् । अ॒व॒तः । न । सि॒ञ्च॒ते । क्षर॑न्ति । इ॒न्द्र॒ । धी॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्रं न वीरं नमसोप सेदिम विभूतिमक्षितावसुम् । उद्रीव वज्रिन्नवतो न सिञ्चते क्षरन्तीन्द्र धीतय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रम् । न । वीरम् । नमसा । उप । सेदिम । विऽभूतिम् । अक्षितऽवसुम् । उद्रीऽइव । वज्रिन् । अवतः । न । सिञ्चते । क्षरन्ति । इन्द्र । धीतयः ॥ ८.४९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 49; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With homage and adorations, we approach Indra, illustrious, brave, glorious, lord of inexhaustible wealth, honour and ultimate shelter. As an overflowing spring fills a well with water, so do our thoughts and imagination create the flow of spontaneous praise for the generous lord’s satisfaction.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जलयुक्त विहिरीद्वारे शेती संचित केली जाते. विविध रूपात सर्वांना वसविणारा बलवान परमेश्वर अनेक पदार्थ प्रदान करून सुखरूपी जल आमच्या अंत:करणात सिंचित करून तृप्त करतो, त्यामुळे आम्ही त्याचेच ध्यान करतो. ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमैश्वर्यवान् प्रभु! (विभूतिम्) विविधरूप धारण करने वाले (अक्षितावसुम्) वास देने की अक्षीण शक्तियुक्त तथा (उग्रं न) प्रचण्ड-पराक्रमी के सदृश वीर बलिष्ठ हम आपकी सेवा में (नमसा) विनयसहित (उपसेदिम) पहुँचते हैं। हे अभेद्य व साधनसम्पन्न! (इन्द्र) इन्द्र! (उद्रीव) जल से भरे (अवत न) कूप के तुल्य (सिञ्चते) सिंचन करते हुए आप के प्रति (धीतयः) हमारी विचारधारायें (क्षरन्ति) प्रवाहित हो रही हैं॥६॥

    भावार्थ

    जल से भरे कुएँ से खेत की सिंचाई होती है; विविध रूप में सब को बसाने वाले बलशाली परमेश्वर भिन्न-भिन्न पदार्थ देकर सुख रूपी जल से हमारे अन्तःकरण को सींचकर उसे तृप्ति प्रदान करते हैं; हमारा ध्यान उनकी ओर लगता है॥६॥

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    विषय

    ऐसे प्रभु की उपासना का उपदेश।

    भावार्थ

    ( उग्रं वीरं न ) वीर के समान, उग्र, शत्रुओं के लिये भयंकर ( विभूतिम् ) विशेष शक्तिमान् ( अक्षिता वसुम्) अक्षय धन से सम्पन्न पुरुष को हम ( उप सेदिम ) प्राप्त हों। हे ( वज्रिन् ) वीर्यशालिन् ! ( अवतः न उद्रीवः ) ऊपर मुख किये कूप के समान तू भी अपने प्रजा के क्षेत्र को ( सिञ्चते ) सेचन करता है, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( धीतयः ) नाना स्तुतियें ( क्षरन्ति ) तेरी ओर ही बहती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ बृहती। ३ विराड् बृहती। ५ भुरिग्बृहती। ७, ९ निचृद् बृहती। २ पंक्ति:। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्ति॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विभूतिम् अक्षितावसुम्

    पदार्थ

    [१] हम (उग्रं न) = अत्यन्त तेजस्वी के समान (वीरं) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले (विभूतिम्) = विशिष्ट ऐश्वर्यवाले (अक्षितावसुम्) = अक्षीण धनवाले प्रभु को (नमसा) = नमन के द्वारा (उपसेदिम) = उपासित करते हैं। [२] हे (वज्रिन्) = शत्रुओं के संहारक वज्र को हाथ में लिये हुए प्रभो! आप (उद्रीवण अवतः न) = जलपूर्ण कूप की तरह (सिञ्चते) = हमें सुखों व शक्तियों से सींचते हैं। कुआँ जल से सींचता है, प्रभु शक्ति से। हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (धीतयः क्षरन्ति) = हमारी स्तुतियाँ आपकी ओर ही प्रवाहित होती हैं। यह प्रभुस्तवन ही हमें ऐश्वर्यों व शक्ति को देनेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उस प्रभु के चरणों में नम्रता से उपस्थित हों, जो वीर व विभूतिमान हैं। प्रभु हमें शक्ति से सिक्त करेंगे और उस शक्ति से ही हम शत्रुओं को शीर्ण कर पाएँगें ।

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