ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 32
इ॒मां म॑ इन्द्र सुष्टु॒तिं जु॒षस्व॒ प्र सु माम॑व । उ॒त प्र व॑र्धया म॒तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । मे॒ । इ॒न्द्र॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । जु॒षस्व॑ । प्र । सु । माम् । अ॒व॒ । उ॒त । प्र । व॒र्ध॒य॒ । म॒तिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां म इन्द्र सुष्टुतिं जुषस्व प्र सु मामव । उत प्र वर्धया मतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । मे । इन्द्र । सुऽस्तुतिम् । जुषस्व । प्र । सु । माम् । अव । उत । प्र । वर्धय । मतिम् ॥ ८.६.३२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 32
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (इमाम्, मे, सुष्टुतिम्) इमां मम शोभनां स्तुतिं (सुजुषस्व) सुष्ठु सेवस्व (माम्) मां च (प्राव) प्ररक्ष (उत) अथ (मतिम्) ज्ञानं च (प्रवर्धय) प्रकृष्टं वर्धय ॥३२॥
विषयः
इन्द्रस्य प्रार्थना क्रियते ।
पदार्थः
हे इन्द्र ! मे=मम । इमाम्=पुरोवर्तिनीम् । सुष्टुतिम्=शोभनां स्तुतिम् । जुषस्व=गृहाण । तथा । सु=शोभनम् । प्र=प्रकर्षेण । मामव=रक्ष । उत=अपि च । मम मतिं बुद्धिं च । प्रवर्धय ॥३२ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् ! (इमाम्, मे, सुष्टुतिम्) इस मेरी सुन्दर स्तुति को (सुजुषस्व) सम्यक् सुनें (माम्) मुझे (प्राव) सम्यक् रक्षित करें (उत) और (मतिम्) मेरे ज्ञान को (प्रवर्धय) अत्यन्त बढ़ाएँ ॥३२॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि हे परमेश्वर ! कृपा करके मेरी सब ओर से रक्षा करें और मेरे ज्ञान को प्रतिदिन बढ़ावें, ताकि मैं आपकी उपासना में प्रवृत्त हुआ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करूँ। हे प्रभो ! मेरी इस प्रार्थना को भले प्रकार सुनें ॥३२॥
विषय
इन्द्र की प्रार्थना करते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र तू (मे) मेरी (इमाम्) इस (सुष्टुतिम्) सुन्दर स्तुति को (जुषस्व) ग्रहण कर और (सु) अच्छे प्रकार (माम्+प्र+अव) मुझको आपत्तियों से बचा । (उत) और (मतिम्) मेरी बुद्धि को (प्रवर्धय) अच्छी तरह से बढ़ा ॥३२ ॥
भावार्थ
सब वस्तु प्रथम ईश्वर को समर्पणीय है और सदा तत्त्वों के अभ्यास से बुद्धि तीक्ष्ण कर्तव्य है, यह इसका आशय है ॥३२ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति-प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! ( मे ) मेरी ( इमां ) इस ( सु-स्तुतिम् ) उत्तम स्तुति प्रार्थना को ( जुषस्व ) प्रेम से स्वीकार कर तू ( मा प्र सु अव ) मुझे उत्तम रीति से, सुख से पाल, मेरी रक्षा कर, मुझे दुःखों और पापों से बचा । ( उत ) और ( म तिम् प्र वर्धय ) मेरे ज्ञान, बुद्धि की वृद्धि कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
स्तुति द्वारा मति का वर्धन
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (मे) = मेरे से की जानेवाली (इमां सुष्टुति) = इस उत्तम स्तुति को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करिये। मेरे से किया जानेवाला स्तवन मुझे आपका प्रिय बनाये। मैं आपका ही भक्त बनूँ, हे प्रभो ! (माम्) = मुझे (सु अव) = अच्छी प्रकार रक्षित करिये। आप से रक्षित हुआ हुआ मैं वासनाओं व रोगों का शिकार न होऊँ। [२] (उत) = और आप (मतिम्) = मेरी बुद्धि को (प्रवर्धया) = बढ़ाइये। इस बुद्धि के द्वारा मैं सदा ठीक मार्ग पर चलता हुआ अपना रक्षण कर पाऊँ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-स्तवन करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनें, प्रभु द्वारा रक्षित हों। प्रभु हमारी बुद्धि का वर्धन करें। यह बुद्धि ही तो मुझे रक्षण के योग्य बनायेगी।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, just and merciful lord, pray accept this hymn of adoration for my sake and protect me from evil, and bless me that my intelligence and awareness may grow and rise in piety.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा भाव हा आहे, की हे परमेश्वरा, कृपा करून माझे सगळीकडून रक्षण कर व माझे ज्ञान दररोज वाढव. त्यामुळे मी तुझ्या उपासनेत प्रवृत्त होऊन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करावे. हे प्रभो! माझी ही प्रार्थना चांगल्या प्रकारे ऐक ॥३२॥
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