ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 35
इन्द्र॑मु॒क्थानि॑ वावृधुः समु॒द्रमि॑व॒ सिन्ध॑वः । अनु॑त्तमन्युम॒जर॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । उ॒क्थानि॑ । व॒वृ॒धुः॒ । स॒मु॒द्रम्ऽइ॑व । सिन्ध॑वः । अनु॑त्तऽमन्युम् । अ॒जर॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमुक्थानि वावृधुः समुद्रमिव सिन्धवः । अनुत्तमन्युमजरम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । उक्थानि । ववृधुः । समुद्रम्ऽइव । सिन्धवः । अनुत्तऽमन्युम् । अजरम् ॥ ८.६.३५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 35
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(सिन्धवः) नद्यः (समुद्रम्, इव) यथा समुद्रं तथा (उक्थानि) स्तोत्राणि (अनुत्तमन्युम्) अप्रतिहतप्रभावम् (अजरम्) जरारहितम् (इन्द्रम्) परमात्मानम् (वावृधुः) वर्धयन्ति ॥३५॥
विषयः
कीदृशं वचनं वक्तव्यमित्याचष्टे ।
पदार्थः
उक्थानि=यानि शोभनानि सत्यानि वचनानि सन्ति । तानि । अनुत्तमन्युम्=अनुत्तोऽप्रेरितः परैरनभिभूतो मन्युः क्रोधो यस्य सोऽनुत्तमन्युस्तम् । पुनः । अजरम्=जराद्यवस्थारहितम्=सदैकरसम् । इन्द्रम्= परमात्मानम् । सिन्धवः=नद्यः समुद्रमिव । वावृधुः=वर्धयन्ति=प्रसादयन्ति ॥३५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(सिन्धवः) जिस प्रकार नदियें (समुद्रम्) समुद्र को बढ़ाती हैं, इसी प्रकार (उक्थानि) स्तोत्र (अनुत्तमन्युं) अप्रतिहतप्रभाववाले (अजरम्) जरारहित (इन्द्रं) परमात्मा को (वावृधुः) बढ़ाते हैं ॥३५॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव स्पष्ट है कि जिस प्रकार नदियें समुद्र को प्राप्त होकर उसको महान् करती हैं, इसी प्रकार वेदवाणियें उस प्रभावशाली तथा अजर अमर अभयत्वादि गुणोंवाले परमात्मा को बढ़ाती हैं अर्थात् उसका यश विस्तृत करती हैं ॥३५॥
विषय
कैसा वचन बोलना चाहिये, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(सिन्धवः+इव) जैसे नदियाँ (समुद्रम्) समुद्र को बढ़ाती हैं या प्रसन्न करती हैं, तद्वत् (उक्थानि) शोभन सत्यवचन (इन्द्रम्) परमात्मा को (वावृधुः) प्रसन्न करते हैं । जो परमदेव (अनुत्तमन्युम्) अप्रेरितक्रोध है, असत्यवचन से जिसका क्रोध बहुत बढ़ता है और उसको कोई भी स्तोत्र रोक नहीं सकता अर्थात् जो सदा सत्य है और सत्य को ही चाहता है । पुनः (अजरम्) जरा आदि सर्व प्रकार के विकारों से रहित है ॥३५ ॥
भावार्थ
पवित्र और सत्यवचन वक्तव्य हैं, यह शिक्षा इससे देते हैं ॥३५ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति-प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( सिन्धवः समुद्रम् इव ) जिस प्रकार नदियें समुद्र को बढ़ाती हैं उसी प्रकार ( उक्थानि ) उत्तम वेदमन्त्र ( समुद्रम् ) आनन्द के सागर और ( अनुत्त-मन्युम् ) सर्वोपरि ज्ञान और पराक्रम से युक्त ( अजरम् ) जरारहित, अविनाशी ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् प्रभु को ( वावृधुः ) बढ़ाते हैं, उस की महिमा का विस्तार करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
'अनुत्तमन्यु अजर' प्रभु
पदार्थ
[१] (इव) = जैसे (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र का वर्धन करती हैं, इसी प्रकार (उक्थानि) = स्तोत्र हमारे हृदयों में (इन्द्रम्) = प्रभु को (वावृधुः) = बढ़ाते हैं। जितना-जितना हम प्रभु का स्तवन करते हैं, उतना उतना प्रभु का भाव हमारे में वृद्धि को प्राप्त होता है। [२] उस प्रभु को ये स्तोत्र बढ़ाते हैं, जो (अनुत्तमन्युम्) = [अनुत्त- अप्रेरित] अप्रेरित ज्ञानवाले हैं, स्वाभाविक ज्ञानवाले हैं, किसी और से जो ज्ञान को नहीं प्राप्त करते तथा (अजरम्) = कभी जीर्ण होनेवाले नहीं। प्रभु की शक्ति कभी जीर्ण नहीं होती। इस प्रकार प्रभु को स्मरण करते हुए हम भी ज्ञान व शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन हमारे में प्रभु के भाव को बढ़ाता है, प्रभु ज्ञानस्वरूप हैं, अजीर्ण शक्तिवाले हैं। हम भी इस रूप में प्रभु का स्मरण करते हुए 'ज्ञानी व सशक्त' बनने के लिये यत्नशील होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Hymns of adoration and prayer and yajnic performances exalt Indra, unaging and eternal lord beyond anger and agitation, just as rivers augment the ocean beyond overflowing.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हा भाव आहे की, ज्या प्रकारे नद्या समुद्राला मिळतात व त्याला महान करतात, त्याचप्रकारे वेदवाणी त्या प्रभावी, अजर, अमर, अभयत्व इत्यादी गुणांनी युक्त परमेश्वराला वाढविते अर्थात त्याचे यश प्रसृत करते. ॥३५॥
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