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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यं ते॒ मानु॑षे॒ जने॒ सोम॑: पू॒रुषु॑ सूयते । तस्येहि॒ प्र द्र॑वा॒ पिब॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ते॒ । मानु॑षे । जने॑ । सोमः॑ । पू॒रुषु॑ । सू॒य॒ते॒ । तस्य॑ । आ । इ॒हि॒ । प्र । द्र॒व॒ । पिब॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ते मानुषे जने सोम: पूरुषु सूयते । तस्येहि प्र द्रवा पिब ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । ते । मानुषे । जने । सोमः । पूरुषु । सूयते । तस्य । आ । इहि । प्र । द्रव । पिब ॥ ८.६४.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 45; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, this soma yajna is performed and soma is distilled in your honour in the human communities all over the world. Lord, come fast, drink, protect and promote the soma.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पूर्वीच्या ऋचांमध्ये दर्शविलेले आहे की, तो कुणाच्या यज्ञात जातो, तो कुणाकडे जातो किंवा जात नाही. यात प्रार्थना आहे की, हे भगवान संपूर्ण मानवजातीमध्ये तुझी पूजा होते. तू त्यांच्यावर कृपा कर. ॥१०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=त्वदर्थम् । मयि मानुषे जने=मम निकटे तथा पूरुषु=सर्वेषां निकटे । अयं सोमः=तव प्रियो यागः । सूयते=क्रियते । तस्य=तम् । एहि । प्रद्रव । पिब ॥१० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (ते) तेरे लिये (मानुषे+जने) मुझ मनुष्य के निकट और (पूरुषु) सम्पूर्ण मनुष्यजातियों में (अयम्+सोमः+सूयते) यह तेरा प्रिय सोमयाग किया जाता है, (तस्य+एहि) उसके निकट आ, (प्रद्रव) उसके ऊपर कृपा कर, (पिब) कृपादृष्टि से उसको देख ॥१० ॥

    भावार्थ

    पूर्व ऋचाओं में दिखलाया गया है कि वह किसके याग में जाता है, वह किसके गृह पर जाता है या नहीं । इसमें प्रार्थना है कि हे भगवन् ! समस्त मनुष्यजातियों में तेरी पूजा होती है । तू उस पर कृपा कर । इत्यादि ॥१० ॥

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    विषय

    प्रभु के विरल भक्त।

    भावार्थ

    (मानुषे जने) मननशील जनों में ( ते ) तेरे लिये ( पुरुषु ) इन्द्रियों में ज्ञान के समान ( सोमः सूयते ) सोम, ऐश्वर्यप्रद का अभिषेक किया जाता है, तू ( प्र द्रव ) उत्तम मार्ग से चल और ( इहि ) प्राप्त हो और ( आ पिब ) सब प्रकार से ओषधि रसवत् उपभोग और पालन कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७, ९ निचृद् गायत्री। ३ स्वराड् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। २, ६, ८, १०—१२ गायत्री। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    पोषण के निमित्त सोम का सवन

    पदार्थ

    [१] (अयं सोमः) = यह सोम (मानुषे जने) = विचारशील मनुष्य में (पूरुषु) = पालन व पूरण की क्रियाओं के निमित्त (ते) = आपके द्वारा (सूयते) = उत्पन्न किया जाता है। विचारशील मनुष्य इसका रक्षण करते हुए अंग-प्रत्यंग का पोषण करते हैं। [२] हे प्रभो ! आप (इहि) = आइए, (प्रद्रव) = प्रकर्षेण हमारे प्रति गतिवाले होइए और (तस्य पिब) = उस सोम का पान करिये। आपका उपासन ही हमें सोम के रक्षण के योग्य बनाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे शरीरों में अंगों के पोषण के निमित्त सोम का उत्पादन करते हैं। प्रभु ही वस्तुतः इसका रक्षण भी करते हैं।

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