ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 7
क्व१॒॑ स्य वृ॑ष॒भो युवा॑ तुवि॒ग्रीवो॒ अना॑नतः । ब्र॒ह्मा कस्तं स॑पर्यति ॥
स्वर सहित पद पाठक्व॑ । स्यः । वृ॒ष॒भः । युवा॑ । तु॒वि॒ऽग्रीवः॑ । अना॑नतः । ब्र॒ह्मा । कः । तम् । स॒प॒र्य॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्व१ स्य वृषभो युवा तुविग्रीवो अनानतः । ब्रह्मा कस्तं सपर्यति ॥
स्वर रहित पद पाठक्व । स्यः । वृषभः । युवा । तुविऽग्रीवः । अनानतः । ब्रह्मा । कः । तम् । सपर्यति ॥ ८.६४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 45; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 45; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Where does the generous lord of showers, ever youthful and eternal, of broad shoulders unbent, reside? Which sage and scholar can ever comprehend and serve him in full knowledge and competence?
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा त्याच्या (परमेश्वराच्या) राहण्याचे स्थान माहीत नाही तेव्हा कोण त्याची पूजा करू शकतो? अर्थात् तो अगम्य अगोचर आहे. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
वृषत्वेनेन्द्रः स्तूयते ।
पदार्थः
स्यः=सः । वृषभः=कामानां वर्षिता ईश्वरः । क्वास्तीति को वेत्ति । कीदृशः । युवा=तरुणः तथा जगदिदं जीवैः सह मिश्रयिता । पुनः । तुविग्रीवः=विस्तीर्णकन्धरः । तथा सर्वत्र विस्तीर्णः । अपि च अनानतः=न आनतः । न नम्रीभूतः । तञ्चेन्द्रम् । को ब्रह्मा सपर्य्यति=पूजयितुं शक्नोति ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
वृषभरूप से उस इन्द्र की स्तुति करते हैं ।
पदार्थ
(स्यः) वह सर्वत्र प्रसिद्ध (वृषभः) निखिल कामनाप्रद वृष अर्थात् इन्द्र (क्व) कहाँ है, कौन जानता है, जो (युवा) नित्य तरुण और जीवों के साथ इस जगत् को मिलानेवाला है, (तुविग्रीवः) विस्तीर्णकन्धर अर्थात् सर्वत्र विस्तीर्ण व्यापक है, पुनः जो (अनानतः) अनम्रीभूत अर्थात् महान् उच्च से उच्च और सर्वशक्तिमान् है, (तम्) उस ईश्वर को (कः+ब्रह्मा) कौन ब्राह्मण (सपर्य्यति) पूज सकता है ॥७ ॥
भावार्थ
जब उसके रहने का कोई पता नहीं है, तब कौन उसकी पूजाविधान कर सकता है अर्थात् वह अगम्य अगोचर है ॥७ ॥
विषय
सर्वोपास्य, अज्ञेय प्रभु।
भावार्थ
( स्यः ) वह ( वृषभः ) सुखों का वर्षण करने वाला, (युवा) बलवान्, ( तुविग्रीवः ) दृढ़, विस्तृत, बलशाली गर्दन वाला, भार उठाने में समर्थ, ( अनानतः ) कभी न झुकने वाला ( क्व ) कहां है ( कः ब्रह्मा ) कौन ब्रह्मवेत्ता, विद्वान् वेदज्ञ ऐसा है जो ( तं सपर्यति ) उसकी पूजा करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७, ९ निचृद् गायत्री। ३ स्वराड् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। २, ६, ८, १०—१२ गायत्री। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
विरलो जनः
पदार्थ
[१] संसार में (स्यः) = वह व्यक्ति (क्व) = कहाँ है ? जो (वृषभः) = शरीर में शक्ति के सेचन के द्वारा बलवान् बना है। (युवा) = बुराइयों को अपने से पृथक् करनेवाला व अच्छाइयों का अपने से मिश्रण करनेवाला है। (तुविग्रीवः) = महान् ग्रीवावाला है। (तुवि) = अनेक ग्रीवाओंवाला है। अन्नमय कोश में बलवान्, प्राण [इन्द्रियाँ] मय कोश में असत् को छोड़कर सत्वाला तथा मनोमय कोश में तुविग्रीव । यह सभी को अपनी मैं में समाविष्ट करता है-सो सभी के साथ मिलकर खाता है। यही 'अनेक ग्रीवाओंवाला होना' हैं । [२] यह (अनानतः) = ज्ञान के सम्पादन के कारण विषयवासना से न दबा हुआ होता है। (ब्रह्मा) = यह परमार्थ ज्ञान को प्राप्त करता है कि 'सब प्राणी उस प्रभु में हैं, सबमें उस प्रभु का वास है'। यह ज्ञान ही इसकी आनन्दमयता का कारण बनता है। (कः) = वह आनन्दमय प्रभु भी (तं) = उस 'वृषभ-युवा- तुविग्रीव - अनानत - ब्रह्म' बनने का प्रयत्न करते हुए प्रभु के प्रिय बनें।
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