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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 9
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    कं ते॑ दा॒ना अ॑सक्षत॒ वृत्र॑ह॒न्कं सु॒वीर्या॑ । उ॒क्थे क उ॑ स्वि॒दन्त॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कम् । ते॒ । दा॒नाः । अ॒स॒क्ष॒त॒ । वृत्र॑ऽहन् । कम् । सु॒ऽवीर्या॑ । उ॒क्थे । कः । ऊँ॒ इति॑ । स्वि॒त् । अन्त॑मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कं ते दाना असक्षत वृत्रहन्कं सुवीर्या । उक्थे क उ स्विदन्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कम् । ते । दानाः । असक्षत । वृत्रऽहन् । कम् । सुऽवीर्या । उक्थे । कः । ऊँ इति । स्वित् । अन्तमः ॥ ८.६४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 45; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O destroyer of darkness and evil, whom do your gifts of generosity reach? And whom do your strength and energies reach? In the chant of hymns and in yajna, who is your closest friendliest devotee?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याचे अनुग्रहपात्र कोण आहेत? यावर सर्वांनी विचार करावा. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=तवादानाः=दानानि । कं पुरुषम् । असक्षत=प्राप्नुवन्ति । हे वृत्रहन् ! कमुपासकम् । सुवीर्य्या=शोभनवीर्य्याणि च । क उ । स्वित्=कः खलु । उक्थे=स्तोत्रे । अन्तमः=अन्तिकतमस्तव ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वृत्रहन्) हे विघ्नविनाशक इन्द्र ! (कम्) किसको (ते+दानाः) तेरे दान (असक्षत) प्राप्त होते हैं, (कम्) किसको तेरी कृपा से (सुवीर्य्या) शोभन वीर्य्य और पुरुषार्थ मिलते हैं । (उक्थे) स्तोत्र सुनकर (कः+उ+स्वित्) कौन उपासक तेरा (अन्तमः) समीपी और प्रियतम होता है ॥९ ॥

    भावार्थ

    उसके अनुग्रहपात्र कौन हैं, इस पर सब कोई विचार करें ॥९ ॥

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    विषय

    प्रभु के विरल भक्त।

    भावार्थ

    हे ( वृत्रहन् ) विध्नों के नाश करने हारे ! ( ते दाना ) तेरे दिये दान ( कं असक्षत ) कैसे व्यक्ति को प्राप्त होते हैं ? ( कं सुवीर्या ) उत्तम बल भी किस को मिलते हैं ? ( क उ स्वित् ) कौन ऐसा भाग्यवान् है जो ( अन्तमः ) तेरे अति समीपतम है ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७, ९ निचृद् गायत्री। ३ स्वराड् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। २, ६, ८, १०—१२ गायत्री। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    दान-सुवीर्य-उक्थ

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (कं) = किसी विरल व्यक्ति को ही (ते दाना) = तेरी दानवृत्तियाँ असक्षत प्राप्त होती हैं, अर्थात् कोई विरल व्यक्ति ही आपकी उपासना करता हुआ दानवृत्तिवाला होता है। हे (वृत्रहन्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! (कं) = किसी एक आध को ही (सुवीर्या) = उत्तम वीर्य [पराक्रम] प्राप्त होते हैं। [२] (कः उ) = और कोई ही (उक्थे) = स्तोत्रों के होने पर (स्वित्) = निश्चय से (अन्तमः) = आपका अन्तिकतम होता है। ऐसे व्यक्ति कम ही हैं जो आपकी स्तुति करते हुए आपके उपासक बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - विरल ही व्यक्ति दानवृत्ति को अपना कर वासनाओं से ऊपर उठकर शक्तिशाली बनते हैं और प्रभुस्तवन करते हुए प्रभु के उपासक बनते हैं।

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