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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 10
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    त्वं न॑ इ॒न्द्रा भ॑रँ॒ ओजो॑ नृ॒म्णं श॑तक्रतो विचर्षणे । आ वी॒रं पृ॑तना॒षह॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । आ । भ॒र॒ । ओजः॑ । नृ॒म्णम् । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । वि॒ऽच॒र्ष॒णे॒ । आ । वी॒रम् । पृ॒त॒ना॒ऽसह॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं न इन्द्रा भरँ ओजो नृम्णं शतक्रतो विचर्षणे । आ वीरं पृतनाषहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । नः । इन्द्र । आ । भर । ओजः । नृम्णम् । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । विऽचर्षणे । आ । वीरम् । पृतनाऽसहम् ॥ ८.९८.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of vision and hero of a hundred great actions, bring us abundant and illustrious strength, courage and procreative energy by which we may fight out and win many battles of our life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची गुणवंदना त्याच्या गुणासारखे गुण ग्रहण करण्यासाठी साधकाचे साहस वाढविते. ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (शतक्रतो) विविध कर्म साधक, सैकड़ों प्रज्ञाओं वाले! (विचर्षणे) सर्वद्रष्टा! (इन्द्र) प्रभु! (त्वम्) आप (नः) हमें (ओजः) ओजस्विता (नृम्णम्) साहस से (आ भर) भरपूर कर दें। और हमें (पृतनासहम्) अनेकों पर विजय प्राप्त कराने वाले (वीरम्) वीरताधायक बल से भी (आ) परिपूरित करें॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की वन्दना उसके गुणों के तुल्य गुणों के ग्रहण हेतु साधक के साहस में वृद्धि करती है॥१०॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( शत-क्रतो ) अपरिमित ज्ञानवन् ! हे ( विचर्षणे ) समस्त विश्व को देखने हारे ! हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वं नः ओजः नृम्णं आ भर ) तू हमें बल, पराक्रम और ऐश्वर्य प्रदान कर। और ( पृतना-सहं वीरं आभर ) संग्राम विजयी वीर को प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    ओजः नृम्णं

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन्- परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिये (ओजः) = बल को तथा (नृम्णम्) = धन को (आभर) = प्राप्त कराइये। [२] हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले (विचर्षणे) = सब के द्रष्टा प्रभो! आप हमें (पृतनाषहम्) = शत्रु सेनाओं का अभिभव करनेवाले (वीरम्) = वीर सन्तान को (आ) [ भर ] = प्राप्त कराइये ।

    भावार्थ

    भावार्थ- - प्रभु का उपासन करते हुए हम बल, धन तथा वीर सन्तान को प्राप्त करके सुखी जीवनवाले हों।

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