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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - ककुम्मत्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ त्वं सूर्य॑मरोचयः । वि॒श्वक॑र्मा वि॒श्वदे॑वो म॒हाँ अ॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽभूः । अ॒सि॒ । त्वम् । सूर्य॑म् । अ॒रो॒च॒यः॒ । वि॒श्वऽक॑र्मा । वि॒श्वऽदे॑वः । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्राभिभूरसि त्वं सूर्यमरोचयः । विश्वकर्मा विश्वदेवो महाँ असि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । इन्द्र । अभिऽभूः । असि । त्वम् । सूर्यम् । अरोचयः । विश्वऽकर्मा । विश्वऽदेवः । महान् । असि ॥ ८.९८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, you are the lord supreme dominant over all, you give light to the sun, you are the maker of the universe, you are the one adorable light and spirit of the world, you are the one great and glorious life of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य इत्यादी पिंड सर्वांना प्रिय वाटतात. त्यांच्याशिवाय आमचे कोणतेही काम चालू शकत नाही; परंतु सूर्य इत्यादी चमकणाऱ्या पिंडांचा प्रकाशकही परमेश्वरच आहे. त्यामुळे त्याच्यापेक्षा मोठा कोणीच नाही. ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) प्रभु! (त्वम्) आप (अभिभूः असि) सामर्थ्य में सबको पराजित कर आसीन हैं; (त्वं सूर्यम् अरोचयः) सूर्य आदि ज्योतिष्पुञ्जों को भी आपने प्रकाशित किया है; आप विश्वकर्मा संसारभर के शिल्पी, और (विश्वदेवः) संसारभर के पदार्थों को दिव्यता देने वाले हैं; अतः आप (महान् असि) महान् हैं॥२॥

    भावार्थ

    सूर्य इत्यादि आलोकित पिण्ड हमें कितने सुहाते हैं--उनके बिना हमारा कोई कार्य नहीं चल सकता। परन्तु सूर्य आदि चमकते पिण्डों का प्रकाशक भी तो प्रभु ही है। अतएव उससे बड़ा कोई नहीं है॥२॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( स्वम् ) तू ( अभिभूः असि ) सर्वत्र विद्यमान है ( त्वम् सूर्यम् अरोचयः ) तू सूर्य को प्रकाशित करता है। तू (विश्व-कर्मा ) समस्त जगत् का बनाने वाला, और ( विश्व-देवः ), सब देवों का देव, सब का दाता, सब का प्रकाशक और ( महान् असि ) सब से बड़ा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    विश्वकर्मा, विश्वदेवः

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रु - विद्रावक प्रभो ! (त्वम्) = आप (अभिभूः असि) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं। (त्वम्) = आप ही (सूर्यं अरोचय:) = सूर्य को दीप्त करते हैं। प्रभु हमारे भी काम-क्रोध आदि शत्रुओं को अभिभूत करके हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञानसूर्य को उदित करते हैं। [२] हे प्रभो! आप ही (विश्वकर्मा) = सब कर्मों को करनेवाले व (विश्वदेवः) = सब दिव्य गुणोंवाले वा सब देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले हैं। अतएव महान् (असि) = आप महान् हैं, पूज्य हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ही सब शत्रुओं का अभिभव करते हैं। प्रभु ही सूर्य को दीप्त करते हैं। प्रभु विश्वकर्मा, विश्वदेव व महान् हैं।

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