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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    अधा॒ ही॑न्द्र गिर्वण॒ उप॑ त्वा॒ कामा॑न्म॒हः स॑सृ॒ज्महे॑ । उ॒देव॒ यन्त॑ उ॒दभि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । हि । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । उप॑ । त्वा॒ । कामा॑न् । म॒हः । स॒सृ॒ज्महे॑ । उ॒त् । एव॑ । यन्तः॑ । उ॒दऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा कामान्महः ससृज्महे । उदेव यन्त उदभि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । हि । इन्द्र । गिर्वणः । उप । त्वा । कामान् । महः । ससृज्महे । उत् । एव । यन्तः । उदऽभिः ॥ ८.९८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And O lord lover of song and celebration, Indra, we send up vaulting voices of adoration and prayer to you like wave on waves of the flood rolling upon the sea.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जलाने भरलेल्या जलागाराबरोबर जाणारे यात्री जलाने पूर्ण होऊ शकणाऱ्या अभिलाषांची सृष्टी करू शकतात. परमेश्वर तर ऐश्वर्याने भरपूर आहे. त्याच्या सान्निध्यात साधकाच्या कोणत्याही कामनांच्या पूर्तीची आशा ठेवणे आवश्यक आहे. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (गिर्वणः) स्तुतियोग्य प्रभु! (अध हि) अब तो हम (त्वा उप) आप के सान्निध्य में (महः) बड़ी-बड़ी (कामान्) अभिलाषाओं की (ससृज्महे) सृष्टि करें (इव) जैसे कि (उदभिः) जलों--नदी सागर आदि द्वारा (यन्तः) यात्रा करने वाले (उदा) जलों के द्वारा अपनी अभिलाषाओं की वृद्धि करते हैं॥७॥

    भावार्थ

    जलपूरित जलागारों के पास जानेवाले जलों से पूर्ण हो सकने वाली अभिलाषाओं की सृष्टि कर सकते हैं। प्रभु तो सभी ऐश्वर्यों से परिपूर्ण है--फिर उसके सान्निध्य में साधक का किसी भी कामना की पूर्ति की आशा रखना सम्भव है॥७॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा उपास्य ! स्तुत्य ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( अध हि ) और हम ( त्वा उप ) तेरे ही समीप रह कर ( महः कामान् ) बड़ी २ अभिलाषाओं को ( ससृज्महे ) पूर्ण करें ( उदा इव यन्तः उद्भिः ) जिस प्रकार नदी समुद्रादि से जाते हुए यात्री जल से ही अपनी समस्त आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं उसी प्रकार तुझ उन्नत होकर हम तेरे द्वारा ही सब अभिलाषाएं पूर्ण कर लिया करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'महः कामान्'[महान् कामनायें ]

    पदार्थ

    [१] हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों द्वारा उपासनीय (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अधा हि) = अब निश्चय से (त्वा उप) = आपके समीप ही (महः कामान्) = इन महान् कामनाओं को (ससृज्महे) = अपने में उत्पन्न कर पाते हैं। प्रभु की उपासना से उस महान् प्रभु का सम्पर्क हमारे में महान् ही कामनाओं को जन्म देता है। [२] (इव) = जैसे (उदा यन्तः) = पानी में से जाते हुए पुरुष (उदभिः) = जलों से अपने को संसृष्ट करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-नदी से जानेवाले पुरुष जैसे जलों से संसृष्ट होते हैं, इसी प्रकार महान् प्रभु के सम्पर्कवाले पुरुष महान कामनाओं से संसृष्ट हो पाते हैं। इनके अन्दर तुच्छ कामनायें उत्पन्न ही नहीं होती।

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