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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    एन्द्र॑ नो गधि प्रि॒यः स॑त्रा॒जिदगो॑ह्यः । गि॒रिर्न वि॒श्वत॑स्पृ॒थुः पति॑र्दि॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒न्द्र॒ । नः॒ । ग॒धि॒ । प्रि॒यः । स॒त्रा॒ऽजित् । अगो॑ह्यः । गि॒रिः । न । वि॒श्वतः॑ । पृ॒थुः । पतिः॑ । दि॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एन्द्र नो गधि प्रियः सत्राजिदगोह्यः । गिरिर्न विश्वतस्पृथुः पतिर्दिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इन्द्र । नः । गधि । प्रियः । सत्राऽजित् । अगोह्यः । गिरिः । न । विश्वतः । पृथुः । पतिः । दिवः ॥ ८.९८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, come, take us over as your own. Dear and giver of fulfilment you are, all dominant by nature, character and action, inconceivably open and bright, expansive and unbounded all round like a cloud of vapour, lord and master of the light of heaven.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विराट शक्तिमान परमेश्वर अद्भुत सृष्टीच्या माध्यमाने प्रकट होतो. याचा अनुभव सर्वांना येतो. योग्य बोध व प्रेरणा या शिवाय माणूस त्याला पाहूनही पाहत नाही. ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे इन्द्र प्रभु! आप जो (सत्राजित्) सत्य गुण, कर्म, स्वभाव के द्वारा सर्वविजयी हैं; (अगोयः) जिस आपकी सत्ता सदैव प्रकट हैं; (गिरिः न) पर्वत की भाँति (विश्वतः पृथुः) सब ओर विशाल है; (दिवः पतिः) प्रकाश लोक के पालक हैं; वह आप (नः) हमें (आ गधि) बोध प्राप्त कराएं॥४॥

    भावार्थ

    विराट् प्रभु अद्भुत सृष्टि के माध्यम से ही प्रकट है; उसे भला कौन नहीं अनुभव करता! हाँ, उचित बोध, प्रेरणा बिना मानव उसे देखता हुआ भी नहीं देखता॥४॥

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( नः प्रियः ) हमारा प्रिय, ( सत्राजित् ) सत्य बल से सबको विजय करने वाला, ( अगोह्यः ) अगोप्य, सर्वत्र प्रकाशित ( गिरिः ) मेघ वा पर्वत के समान ( विश्वतः पृथुः ) सब बड़ा ( दिवः पतिः ) सूर्यादि तेजस्वी जगत् का और हमारी कामनाओं का भी स्वामी, पालक है । तू ( नः आ गधि ) हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सत्राजित्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (नः) = हमें (आगधि) = प्राप्त होइये। (प्रियः) = आप प्रीति व आनन्द के जनक हैं, (सत्राजित्) = सदा विजय प्राप्त करानेवाले हैं। (अगोह्यः) = किसी से भी संवृत नहीं किये जाने योग्य हैं। सारे ब्रह्माण्ड को आपने अपने में आवृत किया हुआ है। 'अगोह्यः' का भाव यह भी है कि प्रभु की महिमा कण-कण में दृष्टिगोचर होती है, सो प्रभु का प्रकाश तो सर्वत्र है। [२] आप (गिरिः न) = उपदेष्टा के समान हैं। हृदयस्थरूपेण सदा सत्कर्मों की प्रेरणा दे रहे हैं। (विश्वतः पृथुः) = सब दृष्टिकोणों से विशाल हैं। आपका ज्ञान, बल व ऐश्वर्य सब अनन्त है। आप (दिवः पतिः) = प्रकाश के, ज्ञान के स्वामी हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें विजय प्राप्त कराते हैं। ज्ञानोपदेश द्वारा वे हमारा कल्याण करते हैं।

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