ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 98/ मन्त्र 5
अ॒भि हि स॑त्य सोमपा उ॒भे ब॒भूथ॒ रोद॑सी । इन्द्रासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धः पति॑र्दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । हि । स॒त्य॒ । सो॒म॒ऽपाः॒ । उ॒भे इति॑ । ब॒भूथ॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । इन्द्र॑ । असि॑ । सु॒न्व॒तः । वृ॒धः । पतिः॑ । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि हि सत्य सोमपा उभे बभूथ रोदसी । इन्द्रासि सुन्वतो वृधः पतिर्दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । हि । सत्य । सोमऽपाः । उभे इति । बभूथ । रोदसी इति । इन्द्र । असि । सुन्वतः । वृधः । पतिः । दिवः ॥ ८.९८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 98; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Lord eternal and ever true, lover, protector and promoter of the beauty and joy of existence, you are higher and greater than both heaven and earth. Indra, omnipotent lord and master of the light of heaven, you are the inspirer and giver of advancement to the pursuer of the knowledge, beauty and power of the soma reality of life.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टीत जे काही विद्यमान आहे ते प्रभूच्या अधीन आहे. जो साधक सृष्टीच्या पदार्थांचा बोध घेत असतो त्याला ज्ञानरूप प्रकाशाचा कुबेर परमेश्वर उत्साहित करतो. ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (सत्य) सनातन! प्रभु! आप (सोमपाः) इस सारे पदार्थ वैभव के रक्षक हैं; (रोदसी) द्युलोक तथा भूलोकस्थ (उभे) दोनों में विद्यमान सभी से (अभि बभूथ) अधिक उत्तम हैं। हे (इन्द्र) परमात्मा! आप (सुन्वतः) सकल पदार्थों के बोधरूप सार को ग्रहण कर रहे साधक को (वृधः) उत्साहित करते हैं; आप (दिवः पतिः) ज्ञानरूप प्रकाश के स्वामी हैं॥५॥
भावार्थ
सृष्टि में जो कुछ भी है--प्रभु-आधीन है। जो साधक सृष्टि के पदार्थों का बोध पाने में व्यस्त है, उसे ज्ञान-रूप प्रकाश का कुबेर परमेश्वर उत्साह देता है॥५॥
विषय
पक्षान्तर में राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( सत्य ) सत्यस्वरूप ! ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( उभे रोदसी ) आकाश और पृथिवी दोनों पर ( अभि बभूथ ) वश करता है। तू ( सुन्वतः वृधः ) उपासक का बढ़ाने वाला, ( दिवः पतिः ) कामनाओं और तेजों का स्वामी है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नृमेध ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५ उष्णिक्। २, ६ ककुम्मती उष्णिक्। ३, ७, ८, १०—१२ विराडष्णिक्। ४ पादनिचदुष्णिक्। ९ निचृदुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'ब्रह्माण्ड के शासक' प्रभु
पदार्थ
[१] हे (सत्य) = सत्यस्वरूप (सोमपाः) = सोम का रक्षण करनेवाले प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (अभि बभूथ) = अभिभूत करते हो । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपके वश में है। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवन् प्रभो ! आप (सुन्वतः) = यज्ञशील पुरुष के व सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष के (वृधः) = बढ़ानेवाले (असि) = हैं। (दिवः) = द्युलोक के व प्रकाश के (पतिः) = स्वामी व रक्षक हैं। जो भी सोम का अपने जीवन में सम्पादन करता है, उसे आप स्वर्ग व प्रकाश प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु सारे ब्रह्माण्ड के शासक हैं। सोम का सम्पादन करनेवाले के रक्षक हैं। प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले हैं।
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