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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
    ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    पु॒ना॒न इ॑न्द॒वा भ॑र॒ सोम॑ द्वि॒बर्ह॑सं र॒यिम् । त्वं वसू॑नि पुष्यसि॒ विश्वा॑नि दा॒शुषो॑ गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒ना॒नः । इ॒न्दो॒ इति॑ । आ । भ॒र॒ । सोम॑ । द्वि॒ऽबर्ह॑सम् । र॒यिम् । त्वम् । वसू॑नि । पु॒ष्य॒सि॒ । विश्वा॑नि । दा॒शुषः॑ । गृ॒हे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनान इन्दवा भर सोम द्विबर्हसं रयिम् । त्वं वसूनि पुष्यसि विश्वानि दाशुषो गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुनानः । इन्दो इति । आ । भर । सोम । द्विऽबर्हसम् । रयिम् । त्वम् । वसूनि । पुष्यसि । विश्वानि । दाशुषः । गृहे ॥ ९.१००.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 100; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दो) हे परमात्मन् ! (सोम) सर्वोत्पादक ! (पुनानः) सर्वान् पावयन् भवान् (द्विबर्हसं) द्यावापृथिव्योर्वर्धितं (रयिं) धनं (आ भर) परिपूरयतु (त्वं) भवान् (दाशुषो गृहे) यज्ञशीलस्य दातुर्गृहे (विश्वानि, वसूनि) सर्वाणि रत्नानि (पुष्यसि) भरति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप (सोम) सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (पुनानः) सबको पवित्र करते हुए आप (द्विबर्हसं) दोनों लोकों मे बढ़नेवाले (रयिं) धन से (आभर) आप हमको परिपूर्ण करें और (त्वं) आप (दाशुषो गृहे) यज्ञशील दानी पुरुष के घर में (विश्वानि, वसूनि) सब धनों को (पुष्यसि) पुष्ट करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष आत्मा और पर में सुखः-दुखादि को समान समझकर परोपकार करते हैं, परमात्मा उनको उन्नतिशील करता है ॥२॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थनाएं।

    भावार्थ

    हे (इन्दो) मेरे इस आत्मा की ओर वा मुझ इस मुक्त के प्रति रस वा दयालु रूप में द्रवित होने वाले परमेश्वर ! हे कृपा सिन्धो, हे (सोम) सर्वैश्वर्यवन्! तू (पुनानः) अधिकाधिक स्वच्छ रूप में प्रकट होता हुआ, (द्विबर्हसम्) दोनों लोकों को बढ़ाने वाला (रयिम्) ऐश्वर्य, बल, (आ भर) प्राप्त करा। क्योंकि (त्वं) तू (दाशुषः) अपने को तेरे हाथों सौंपने वाले त्यागी के (गृहे) गृह में (विश्वानि वसूनि) सब प्रकार के नाना ऐश्वर्यों को (पुष्यसि) पुष्ट करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रभसूनू काश्यपौ ऋषी ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, २, ४,७,९ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। ५, ६, ८ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्विबर्हसं रयिम्

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = शक्तिशाली (सोम) = वीर्य ! (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (द्विबर्हसम्) = [द्वयोः स्थानयोः परिवृढम् सा०] शरीर व मस्तिष्क दोनों स्थानों में प्रभु भूत [प्रभौ परिवृढः] अर्थात् शरीर को दृढ़ व मस्तिष्क को दीप्त बनानेवाले (रयिम्) = ऐश्वर्य को (आभर) = हमारे में धारण कर । हे सोम ! तू (दाशुषः) = अपने को तेरे प्रति दे डालनेवाले, तेरे भक्त, तेरे रक्षक पुरुष के (गृहे) = इस शरीररूप घर में (त्वं) = तू (विश्वानि) = सब (वसूनि) = वसुओं को (पुष्यसि) = पुष्ट करता है । सोम जीवन रक्षण के सब तत्त्वों को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम मस्तिष्क को दीप्त व शरीर को सशक्त बनाता है, यह सब वसुओं को प्राप्त कराता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma spirit of divinity, bright and blissful, bring us twofold wealth and excellence, expansive for both life on earth and beyond, and give us complete fulfilment. Indeed, you create and augment the wealth, honour and excellence of the world in the house of the man of generosity and charity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष स्व व परमध्ये सुख-दु:ख इत्यादींना समान समजून परोपकार करतात. परमात्मा त्यांना उन्नतिशील बनवितो. ॥२॥

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