ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 100/ मन्त्र 4
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
परि॑ ते जि॒ग्युषो॑ यथा॒ धारा॑ सु॒तस्य॑ धावति । रंह॑माणा॒ व्य१॒॑व्ययं॒ वारं॑ वा॒जीव॑ सान॒सिः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । ते॒ । जि॒ग्युषः॑ । यथा॑ । धारा॑ । सु॒तस्य॑ । धा॒व॒ति॒ । रंह॑माणा । वि । अ॒व्यय॑म् । वार॑म् । वा॒जीऽइ॑व । सा॒न॒सिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ते जिग्युषो यथा धारा सुतस्य धावति । रंहमाणा व्य१व्ययं वारं वाजीव सानसिः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । ते । जिग्युषः । यथा । धारा । सुतस्य । धावति । रंहमाणा । वि । अव्ययम् । वारम् । वाजीऽइव । सानसिः ॥ ९.१००.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 100; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (सुतस्य) उपासितस्य (ते) तवानन्दस्य (धारा) वीचयः उपासकमभि (परि धावति) एवं सरन्ति (यथा) यथा (जिग्युषः) जयशीलयोधस्य (वाजी, इव) अश्वः शत्रुमभि (रंहमाणा) वेगवती (सानसिः) प्राप्तव्या च सा धारा (अव्ययं, वारं) रक्षणीयं वरणीयं च पुरुषमभि अज्ञाननिवृत्तयेऽपि एवमेव धावति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (सुतस्य) उपासना किये गए (ते) तुम्हारे आनन्द की (धारा) लहरें उपासक की ओर (परिधावति) इस प्रकार दौड़ती हैं, (यथा) जैसे कि (जिग्युषः) जयशील योद्धा का (वाजी, इव) घोड़ा शत्रु के दमन के लिये दौड़ता है, इसी प्रकार (रंहमाणा) वेगवती और (सानसिः) प्राप्त करने योग्य धारा (अव्ययं, वारं) रक्षायोग्य वरणीय पुरुष की अज्ञाननिवृत्ति के लिये इसी प्रकार दौड़ती हैं ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा का साक्षात्कार करनेवाले ही परमात्मानन्द पाते हैं ॥४॥
विषय
वाणियों का लक्ष्य प्रभु।
भावार्थ
(सानसिः वाजी इव) जिस प्रकार सधा हुआ वेगवान् अश्व (अव्ययं वारं धावति) अवि अर्थात् रक्षा करने वाले अपने स्वामी के अभिलाषा योग्य उद्देश्य की ओर दौड़ता है, उसी प्रकार (जिग्युषः) विजयशील, (सुतस्य) उपासित (ते) तुझ प्रभु की (धारा) वाणी, और जगत् की धारक और सब को रस पिलाने वाली पोषक शक्ति, (रंहमाणा) वेगवती नदी के तुल्य (यथा) यथावत् (अव्ययं वारम्) परम रक्षक प्रभु के वरणीय पद की ओर ही (सानसिः) सुखपात्री (परिधावति) जा रही है, इसी का निर्देश करती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रभसूनू काश्यपौ ऋषी ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः - १, २, ४,७,८ निचृदनुष्टुप्। ३ विराडनुष्टुप्। ५, ६, ८ अनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
परिधावति
पदार्थ
(यथा) = जैसे (जिग्युषः) = विजयशील योद्धा का (वाजी) = घोड़ा युद्ध में इधर-उधर दौड़ता है, उसी प्रकार हे सोम ! (सुतस्य) = उत्पन्न हुए हुए (ते) = तेरी (धारा) = धारा (परिधावति) = शरीर में चारों ओर शान्ति करती हुई शोधन करती है। (रंहमाणा) = गति करती हुई यह धारा (अव्ययम्) = [अवि अव्] विषयों में न भटकनेवाले (वारम्) = वासनाओं का निवारण करनेवाले पुरुष को प्राप्त होती है और यह जीवन संग्राम में (वाजी इव) = घोड़े की तरह (सानसिः) = संभजनीय होती है। घोड़ा जैसे युद्ध में विजय कराता है, इसी प्रकार यह सोम जीवन संग्राम में विजय का साधक होता है।
भावार्थ
भावार्थ-सोम का जीवन संग्राम में यही स्थान है, जो युद्ध में एक विजेता योद्धा के लिये घोड़े का ।
इंग्लिश (1)
Meaning
When you are distilled from experience and meditation, then the stream of your bliss, fast and ceaseless, flows to the chosen and protected heart of the devotee like the prize winning spirit of a victorious warrior.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याचा साक्षात्कार करणारेच परमानंद प्राप्त करतात. ॥४॥
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