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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यत्र॒ कामा॑ निका॒माश्च॒ यत्र॑ ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप॑म् । स्व॒धा च॒ यत्र॒ तृप्ति॑श्च॒ तत्र॒ माम॒मृतं॑ कृ॒धीन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । कामाः॑ । नि॒ऽका॒माः । च॒ । यत्र॑ । ब्र॒ध्नस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । स्व॒धा । च॒ । यत्र॑ । तृप्तिः॑ । च॒ । तत्र॑ । माम् । अ॒मृत॑म् । कृ॒धि॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र कामा निकामाश्च यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् । स्वधा च यत्र तृप्तिश्च तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । कामाः । निऽकामाः । च । यत्र । ब्रध्नस्य । विष्टपम् । स्वधा । च । यत्र । तृप्तिः । च । तत्र । माम् । अमृतम् । कृधि । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 10
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्र) यस्मिन् (कामाः) सर्वकामाः (नि, कामाः) निष्कामाः क्रियन्ते(च) तथा च (यत्र, ब्रध्नस्य)  यत्र ब्रह्मज्ञानस्य (विष्टपे)  सर्वोपर्युच्च- पदमस्ति (स्वधा) अमृतं चास्ति (तृप्तिः, च) तया तृप्तिश्च (तत्र) तत्रस्थाने (मां) मां (अमृतं, कृधि)  मोक्षपदभागिनं करोतु (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! भवान् (इन्द्राय) ज्ञानयोगिने (परि, स्रव)पूर्णाभिषेकहेतुर्भवतु ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्र, कामाः) यहाँ सब काम (निकामाः) निष्काम किये जाते हैं (च) और (यत्र) यहाँ (ब्रध्नस्य) ब्रह्मज्ञान का (विष्टपं) सर्वोच्च पद है, (यत्र) यहाँ (स्वधा) अमृत (च) और उससे (तृप्तिश्च) तृप्ति है, (तत्र) वहाँ (मां) मुझको (अमृतं, कृधि) मोक्षपद प्राप्त करायें। (इन्दो) हे परमात्मन् ! आप (इन्द्राय) ज्ञानयोगी के (परि, स्रव) पूर्णाभिषेक का निमित्त बनें ॥१०॥

    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! जो ब्रह्मज्ञान का उच्चपद है और जहाँ स्वधा से तृप्ति होती है, वह मोक्षरूप सुख मुझे प्रदान कीजिये, या यों कहो कि वह मुक्तिसुख जिससे एकमात्र ब्रह्मानन्द का ही अनुभव होता है, अन्य विषय सुख आदि जिस अवस्था में सब तुच्छ हो जाते हैं, वह मुक्ति अवस्था मुझे प्राप्त करायें ॥१०॥

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    विषय

    स्वधा च यत्र तृप्तिश्च

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = सोम ! (माम्) = मुझे तत्र वहाँ (अमृतं कृधि) = पूर्ण नीरोग स्थिति प्राप्त करा, (यत्र) = जहाँ कि (कामाः) = ये सारे सांसारिक काम्य विषय (निकामाः) = निकाम हो जाते हैं, नीचे दब जाते हैं । इनसे ऊपर उठकर के जब हम कामकामी न रहकर वास्तविक शान्ति को प्राप्त करते हैं। (च) = और (यत्र) = जहाँ (ब्रध्नस्य) = उस महान् आदित्यवर्ण प्रभु का (विष्टपम्) = देदीप्यमान लोक है। इन कामनाओं से ऊपर उठकर जहाँ हम प्रभु में ही विचरण करते हैं । (च) = और हे सोम ! तू मुझे वहाँ अमृत कर यत्र=जहाँ कि स्वधा = आत्मतत्त्व का धारण होता है (च) = और (तृप्तिः) = वास्तविक तृप्ति का अनुभव होता है, जहाँ हम 'आत्मरति, आत्मक्रीड, आत्मतृप्त' बनते हैं [यत्र चात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ]। हे सोम ! इस स्थिति में प्राप्त कराने के लिये तू (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण हमें सांसारिक काम्य पादर्थों की कामना से ऊपर उठाता है, ब्रह्मलोक में पहुँचाता है, आत्मरति, आत्मतृप्त बनाता है ।

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    विषय

    सुखमय लोकों में अमृतत्व की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (यत्र कामाः) जहां सब प्रकार की अभिलाषाएं और (निकामाः च) नित्य की इच्छाएं पूर्ण हो सकें (यत्र) और जहां (ब्रध्नस्य) सूर्य के प्रकाश में (विष्टपम्) विना ताप का, सुखप्रद आश्रय करने योग्य शान्तिमय स्थान हो (यत्र) और जहां (स्वधा च) स्व, आत्मा को धारण करने वाले जल और अन्न के सदृश शान्ति सुख देनेवाली सामग्री और (तृप्तिः च) जल-पान के समान तृष्णा को शान्त करने वाली शान्ति हो (तत्र) उस लोक में हे (इन्दो) दयालो, प्रभो ! तू (माम्) मुझ (अमृतम्) कभी न नाश होने वाले जीव को (कृधि) उत्पन्न कर अथवा, उक्त प्रकार के लोक में मुझे अमृत अर्थात् दीर्घायु कर। (इन्द्राय इन्दो परि स्रव) हे प्रभो, दयालो, तेजस्विन् ! तू इन्द्र जीव गण के हितार्थ सर्वत्र सुख शान्ति की धारायें बहा। वा हे जीव ! तू उस परम सुख ज्ञान के दाता प्रभु को प्राप्त करने के लिये आगे बढ़।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Where all desire is beyond desire, where knowledge is climactic supreme, where faith, self- sacrifice, surrender and the self itself is fulfilment, there in that heaven of peace, place me immortal. O Indu, spirit of universal eternal peace, flow for Indra, the soul of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमात्मा! जे उच्च ब्रह्मपद आहे व जेथे स्वधेने तृप्ती होते, ते मोक्षरूप सुख मला प्रदान कर. ते मुक्ती सुख ज्यामुळे केवळ ब्रह्मानंदाचाच अनुभव येतो व इतर विषयसुख ज्या अवस्थेत तुच्छ वाटतात. ती मुक्ती अवस्था मला प्राप्त करव. ॥१०॥

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