ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 6
यत्र॑ ब्र॒ह्मा प॑वमान छन्द॒स्यां॒३॒॑ वाचं॒ वद॑न् । ग्राव्णा॒ सोमे॑ मही॒यते॒ सोमे॑नान॒न्दं ज॒नय॒न्निन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । ब्र॒ह्मा । प॒व॒मा॒न॒ । छ॒न्द॒स्या॑म् । वाच॑म् । वद॑न् । ग्राव्णा॑ । सोमे॑ । म॒ही॒यते॑ । सोमे॑न । आ॒ऽन॒न्दम् । ज॒नय॑न् । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र ब्रह्मा पवमान छन्दस्यां३ वाचं वदन् । ग्राव्णा सोमे महीयते सोमेनानन्दं जनयन्निन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । ब्रह्मा । पवमान । छन्दस्याम् । वाचम् । वदन् । ग्राव्णा । सोमे । महीयते । सोमेन । आऽनन्दम् । जनयन् । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्र) यस्यां संन्यासावस्थायां (ब्रह्मा) वेदवेत्ता विद्वान् (छन्दस्यां, वाचं, वदन्) वेदवाचं वर्णयन् (ग्राव्णा) चित्तवृत्तिनिरोधेन (सोमे) परमात्मनि (महीयते) मोक्षं पूज्यपदं लभते (सोमेन) सोमस्वभावेन (आनन्दं, जनयन्) आनन्दमुत्पादयन् यतस्तस्मै (इन्द्राय) योगीन्द्रायसंन्यासिने (इन्दो) प्रकाशस्वरूप (पवमान) सर्वव्यापक ! (परि, स्रव) स्वज्ञानेन पूर्णाभिषेकं करोतु ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ऐश्वर्य्यनिरूपण के पश्चात् मोक्षधर्म का निरूपण करते हैं।
पदार्थ
(यत्र) जिस संन्यासावस्था में (ब्रह्मा) वेदवेत्ता विद्वान् (छन्दस्यां, वाचं, वदन्) वेदविषयक वाणी का वर्णन करता हुआ (ग्राव्णा) गृणातीति ग्रावा तेन ग्राव्णा, चित्तवृत्तिनिरोधेन=चित्तवृत्तिनिरोध द्वारा (सोमे) सोम्यस्वरूप परमात्मा में (महीयते) मोक्षाख्य पूज्यपद को लाभ करता है (सोमेन) सोमस्वभाव से (आनन्दं, जनयन्) आनन्द को उत्पन्न करते हुए (इन्द्राय) योगेन्द्र संन्यासी के लिये (पवमान) सबको पवित्र करनेवाले (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (परि, स्रव) अपने ज्ञान द्वारा पूर्णाभिषेक करें ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र का आशय यह है कि वेदवेत्ता विद्वान् संन्यासावस्था में वेदरूप वाणी का प्रकाश करता हुआ अर्थात् वैदिक धर्म का उपदेश करता हुआ चित्तवृत्तिनिरोध द्वारा परमात्मा में लीन होकर इतस्ततः विचरता है, वह सबके पवित्र करनेवाला होता है, हे परमात्मन् ! आप ऐसे संन्यासी को पूर्णाभिषिक्त करें ॥६॥
विषय
महत्वपूर्ण आनन्दमय जीवन
पदार्थ
हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! (यत्र) = जिस शरीर में स्थित होकर ब्रह्मा वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति (छन्दस्यां वाचं) = इस सप्त छन्दोमयी वेदवाणी को (वदन्) = उच्चारित करता है । वहाँ (ग्राव्णा) = [प्राणा वै ग्राव्णा श० १४ । २ । २ । ३३] प्राणों के द्वारा (सोमे) = सोम के सुरक्षित होने पर (महीयते) = महिमा का अनुभव करता है । प्राणायाम के द्वारा सोम की ऊर्ध्वगति होती है। इस ऊर्ध्वगति के द्वारा शरीर पूर्ण नीरोगता वाला होता है। इस प्रकार सोमरक्षक पुरुष महिमा का अनुभव करता है। यह ब्रह्मा ज्ञानवाणियों में लगे रहकर सोमेन सुरक्षित सोम के द्वारा (आनन्दं जनयन्) = जीवन में आनन्द को उत्पन्न करता है । हे (इन्दो) = सोम तू (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्त्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो ।
भावार्थ
भावार्थ-स्वाध्याय व प्राणसाधना द्वारा सोमरक्षण होता है, सुरक्षित सोम हमें महत्त्वपूर्ण आनन्दमय जीवन वाला बनाता है।
विषय
चाहने योग्य ऐश्वर्यपद। विद्वानों से शासित राज्य हो।
भावार्थ
हे (पवमान) पवित्र करने हारे ! (यत्र) जहां (ब्रह्मा) वेदज्ञ विद्वान्, स्वामी, (छन्दस्यां वाचं वदन्) छन्दोमय वेदवाणी का उपदेश करता हुआ वा ‘छन्दः’ अर्थात् प्रजानुरञ्जनी वाणी को बोलता हुआ (ग्राव्णा) विद्वान् जन के सहयोग से वा (ग्राव्णा) क्षात्रयुक्त शस्त्रबल से (सोमे) शासक पद पर (महीयते) प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है और (सोमेन आनन्दं जनयन्) ऐश्वर्य से सब को आनन्द उत्पन्न करता हुआ बिराजता है उसी (इन्द्राय) ऐश्वर्ययुक्त पद के लिये हे (इन्दो) तेजस्विन् ! तू भी (परि स्रव) उद्योग कर, आगे बढ़।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (1)
Meaning
Where the sage, pure at heart and purifying, chanting the sacred word of the Veda grows to spiritual dignity by the control of mind and senses, there, creating the joy of life by the experience of divine ecstasy, O Spirit of glory and majesty, flow for Indra, the ruling soul in the service of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा आशय हा आहे की वेदवेत्ता विद्वान सन्यासावस्थेत वेदरूपी वाणीचा प्रकाश करत. अर्थात्, वैदिक धर्माचा उपदेश करत चित्तवृत्तीनिरोधाद्वारे परमात्म्यात लीन होऊन इकडे-तिकडे विचरण करतो. तो सर्वांना पवित्र करतो. हे परमेश्वरा अशा संन्याशाला पूर्ण अभिषिक्त कर. ॥६॥
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