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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒त्यमु॑ग्रस्य बृह॒तः सं स्र॑वन्ति संस्र॒वाः । सं य॑न्ति र॒सिनो॒ रसा॑: पुना॒नो ब्रह्म॑णा हर॒ इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्यम्ऽउ॑ग्रस्य । बृ॒ह॒तः । सम् । स्र॒व॒न्ति॒ । स॒म्ऽस्र॒वाः । सम् । य॒न्ति॒ । र॒सिनः॑ । रसाः॑ । पु॒ना॒नः । ब्रह्म॑णा । ह॒रे॒ । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्यमुग्रस्य बृहतः सं स्रवन्ति संस्रवाः । सं यन्ति रसिनो रसा: पुनानो ब्रह्मणा हर इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्यम्ऽउग्रस्य । बृहतः । सम् । स्रवन्ति । सम्ऽस्रवाः । सम् । यन्ति । रसिनः । रसाः । पुनानः । ब्रह्मणा । हरे । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सत्यमुग्रस्य, बृहतः)  संग्रामे सत्याश्रयणान्महतः  यस्य  पुरुषस्य (संस्रवाः) सत्यतास्रोतसा  बहूनि  स्रोतांसि  (संस्रवन्ति)  स्यन्दन्ते (रसिनः) रसिकस्य (रसाः) रसाः  (सं, यन्ति) ये साधु  प्राप्नुवन्ति (ब्रह्मणा) वेदवेत्रा यः (पुनानः) पावितः (हरे) हे हरणशील ! (इन्दो) प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (इन्द्राय)  ईदृशे राज्ञे  (परि, स्रव) अभिषेकहेतुर्भव ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उग्रस्य, सत्यं, बृहतः) संग्राम में सत्यता होने से बढ़े हुए जिस पुरुष के (संस्रवाः) सत्यरूप स्रोत से अनेक सत्य के प्रवाह से (संस्रवन्ति) बह रहे हैं, (रसिनः) रसिक पुरुषों के (रसाः) रस (सं, यन्ति) जिसको भली-भाँति प्राप्त होते हैं, (ब्रह्मणा) वेदवेत्ता विद्वान् से (पुनानः) जो पवित्र किया गया है, (इन्द्राय) ऐसे राजा के लिये (हरे) हे हरणशील (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (परि, स्रव) राज्याभिषेक का निमित्त बनें ॥५॥

    भावार्थ

    वेदवेत्ता विद्वान् से शिक्षा पाया हुआ जो राजा अपने सत्यादि धर्मों का त्याग नहीं करता, उसका राज्य अवश्यमेव चिरस्थायी होता और वह सांसारिक अनेक रसों का भोक्ता होता है ॥५॥

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    विषय

    'सत्यमुग्र बृहत्' सोम

    पदार्थ

    [सत्यं यथार्थभूतं उदूर्णं बलं यस्य] (सत्यमुग्रस्य) = यथार्थभूत उद्गूर्ण [अवृद्ध] बल वाले, (बृहतः) = वृद्धि के कारणभूत सोम के (संस्रवः) = प्रवाह (संस्रवन्ति) = शरीर में सम्यक् स्तुत होते हैं । (रसिन:) = जीवन में रस का सञ्चार करनेवाले इस सोम के (रसाः) = रस [आनन्द] (संयन्ति) = हमें प्राप्त होते हैं। सुरक्षित सोम 'बल, वृद्धि व रस' का हेतु होता है । हे (हरे) = सब दुःखों का हरण करनेवाले (इन्दो) = सोम ! तू (ब्रह्मणा) = ज्ञान की वाणियों द्वारा (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्ति में लगना' सोम की पवित्रता का जनक होता है। पवित्र सोम 'बल, वृद्धि व रस' का साधक होता है ।

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    विषय

    प्रभु के ऐश्वर्यों के तुल्य राजा के ऐश्वर्य। और राजा का दुष्टों के नाश का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (सत्यम्-उग्रस्य) सत्य को सर्वोपरि बोलने वाले, सचमुच दुष्टों के लिये भयप्रद, (बृहतः) महान् उस प्रभु के (संस्रवाः सं स्रवन्ति) अच्छी प्रकार एक साथ बहने और प्रवाह से निरन्तर चलने वाले ज्ञान, ऐश्वर्य और बल के प्रवाह (सं स्रवन्ति) एक साथ खूबी से बहते, बढ़ते और प्राप्त हो रहे हैं। (रसिनः) उस बलवान्, वेगवान् के (रसाः) बल, सैन्य, एवं सुस्वादु रस-प्रवाह भी (सं यन्ति) एक साथ जा रहे हैं, इस प्रकार हे (हरे) संकटों और दुःखों के हरने हारे ! हे मनोहर प्रिय ! तू (ब्रह्मणा पुनानः) वेद ज्ञान और अन्य और महान् बल से पवित्र, देश को स्वच्छ निष्कण्टक करता हुआ, हे (इन्दो) तेजस्विन् ! तू (इन्द्राय परि स्रव) ऐश्वर्यवान् पद के लिये आगे बढ़। (२) अध्यात्म में—हे (इन्दो) जीव ! तू उस प्रभु को पाने के लिये आगे बढ़ उस सत्यमय महान् प्रभु के नाना ऐश्वर्य वह रहे हैं। उस आनन्द-घन के रस उमड़ रहे हैं। इति षडविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Together and in truth flow the laws of infinite potent majesty. Beauties and graces of gracious blissful divinity flow together delicious sweet. O Indu, saviour spirit of beauty and joy, purified and energised by the spirit of Infinity, flow for the sake of Indra, ruling soul of the system in the service of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदवेत्त्या विद्वानाकडून शिक्षण प्राप्त करून जो राजा आपल्या सत्यधर्माचा त्याग करत नाही त्याचे राज्य चिरस्थायी होते व तो सांसारिक अनेक रसांचा भोक्ता असतो. ॥५॥

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