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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कश्यपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    आ प॑वस्व दिशां पत आर्जी॒कात्सो॑म मीढ्वः । ऋ॒त॒वा॒केन॑ स॒त्येन॑ श्र॒द्धया॒ तप॑सा सु॒त इन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । प॒व॒स्व॒ । दि॒शा॒म् । प॒ते॒ । आ॒र्जी॒कात् । सोम॑ । मीढ्वः॑ । ऋ॒त॒ऽवा॒केन॑ । स॒त्येन॑ । श्र॒द्धया॑ । तप॑सा । सु॒तः । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ पवस्व दिशां पत आर्जीकात्सोम मीढ्वः । ऋतवाकेन सत्येन श्रद्धया तपसा सुत इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । पवस्व । दिशाम् । पते । आर्जीकात् । सोम । मीढ्वः । ऋतऽवाकेन । सत्येन । श्रद्धया । तपसा । सुतः । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे सोमस्वभाव  (मीढ्वः) कामप्रद (दिशाम्, पते) सर्वव्यापक परमात्मन् ! भवान्  (आर्जीकात्)  सरलताभावेन प्रजासु  ( आ, पवस्व)  पवित्रतामुत्पादय  (ऋतवाकेन,  सत्येन)  वाक्सत्यतया (श्रद्धया) श्रद्धया च (तपसा) तपसा च (सुतः) यो  राज्यार्हः तस्मै (इन्द्राय) राज्ञे (परि, स्रव) अभिषेकहेतुर्भवतु ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वोत्पादक (मीढ्वः) कामप्रद (दिशां, पते) सर्वव्यापक परमात्मन् ! आप (आर्जीकात्) सरलभाव से प्रजा में (आ, पवस्व) पवित्रता उत्पन्न करते हुए (ऋतवाकेन, सत्येन) वाणी के सत्य से (श्रद्धया, तपसा) श्रद्धा तथा तप से (सुतः) जो राज्याभिषेक के योग्य है, ऐसे (इन्द्राय) राजा के लिये (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (परि, स्रव) राज्याभिषेक का निमित्त बनें ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र का आशय यह है कि जो राजा सरल भाव से प्रजा पर शासन करता हुआ श्रद्धा, तप तथा सत्यादि गुणों को धारण करता है, ऐसे कर्मशील राजा के राज्य को परमात्मा अटल बनाता है ॥२॥

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    विषय

    ऋतवाकेन श्रद्धया सत्येन तपसा

    पदार्थ

    हे (दिशांपते) = शास्त्र निर्देशों का रक्षण करनेवाले, अर्थात् शास्त्र निर्दिष्ट मार्ग से जीवन को प्रणीत करनेवाले, और इस प्रकार (मीढ्वः) = शक्ति का सेचन करनेवाले (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (आर्जीकात्) = [ऋजीकस्य अयम्, ऋजीक - इन्द्र] इन्द्रलोक की प्राप्ति के हेतु से (आपवस्व) = हमें प्राप्त हो। तेरे द्वारा ही इन्द्रलोक की प्राप्ति का सम्भव हैं। (ऋतवाकेन) = सत्य वेदज्ञान के उच्चारण से, (सत्येन) = सत्य से, (श्रद्धया) = श्रद्धा से तथा (तपसा) = तप से (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ तू हे (इन्दो) = सोम ! (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्स्रव) = शरीर के अंग-प्रत्यंग में परिस्रुत हो । सोमरक्षण के लिये 'ज्ञान की वाणियों का उच्चारण, अर्थात् स्वाध्याय, सत्य व्यवहार, श्रद्धा, व तप' साधन बनते हैं। सुरक्षित सोम हमारे जीवनों को शास्त्र निर्देश के अनुसार बनाता है, यह हमें शक्ति सम्पन्न बनाता हुआ प्रभु को प्राप्त कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के लिये 'स्वाध्याय, सत्य, श्रद्धा व तप' साधन हैं। सुरक्षित सोम इहलोक के जीवन को शास्त्र मर्यादा से बद्ध बनाता है और प्रभु की प्राप्ति का साधन होता है।

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    विषय

    वह वेद द्वारा न्यायानुसार शासन करे।

    भावार्थ

    हे (मीढ्वः) ऐश्वर्यों की प्रजाओं पर और शस्त्रों की शत्रु जनों पर वर्षा करने हारे उदार ! हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! हे (दिशांपते) वायुवत् समस्त दिशाओं के पालक ! तू (सुतः) अभिषिक्त, पूजित होकर (ऋत-वाकेन) त्रिकालाबाधित सत्य ज्ञानमय वेद-वचन और (सत्येन) सज्जनों के उपदिष्ट, वा उनमें स्थित व्यवहार से और (श्रद्धया) सत्य धारण करने वाली बुद्धि और (तपसा) तप से युक्त होकर (आर्जीकात्) ऋजु, धर्मनीति से युक्त उच्च पद से (आ पवस्व) हमें प्राप्त हो। हे (इन्दो) तेजस्विन् ! तू (इन्द्राय परि स्रव) ऐश्वर्यप्रद पद प्राप्त करने के लिये उद्योग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ७ विराट् पंक्तिः । ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ पंक्तिः। ५, ६, ८-११ निचृत पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Indu, Soma, spirit of power and glory, master ruler and protector of the quarters of space, virile and generous, realised with faith and relentless austere discipline in pursuance of the Vedic voice, come from the depths of nature and simplicity of eternal law, and flow, pure and purifying, for Indra, the ruling soul, in the service of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचा आशय असो आहे की जो राजा सरळ सहज भावाने प्रजेवर शासन करून श्रद्धा, तप व सत्य गुणांना धारण करतो त्या कर्मशील राजाच्या राज्याला परमात्मा स्थिर करतो. ॥२॥

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