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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ष पु॒रू धि॑यायते बृह॒ते दे॒वता॑तये । यत्रा॒मृता॑स॒ आस॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । पु॒रु । धि॒या॒ऽय॒ते॒ । बृ॒ह॒ते । दे॒वऽता॑तये । यत्र॑ । अ॒मृता॑सः । आस॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष पुरू धियायते बृहते देवतातये । यत्रामृतास आसते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । पुरु । धियाऽयते । बृहते । देवऽतातये । यत्र । अमृतासः । आसते ॥ ९.१५.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः) असौ परमात्मा (पुरु धियायते) अनन्तविज्ञानानां दातास्ति (बृहते देवतातये) शश्वत् जगति देवत्वं विवर्द्धयिषुः (यत्र) यत् प्राप्य (अमृतासः आसते) अमृतत्वं प्राप्यते ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः) यह पूर्वोक्त परमात्मा (पुरु धियायते) अनन्त विज्ञानों का दाता है (बृहते देवतातये) सदैव संसार में देवत्व फैलाने का अभिलाषी है (यत्र) जिस ब्रह्म को प्राप्त होकर (अमृतासः आसते) अमृतभाव को प्राप्त हो जाते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा अनन्तकर्मा है, उसकी शक्तियों के पारावार को कोई पा नहीं सकता। इसी अभिप्राय से कहा है “तस्मिन् दृष्टे परावरे” उस परावर ब्रह्म के   जानने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है और इसी अभिप्राय से “परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते” इत्यादि वाक्यों में उपनिषत्कार ऋषियों ने भी कहा है कि उसकी शक्तियें असंख्यात हैं, उसी को जान कर मनुष्य अमृत पद को लाभ कर सकता है, अन्यथा नहीं ॥२॥

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    विषय

    धियायते

    पदार्थ

    [१] (एषः) = यह सोम (पुरु) = खूब ही (धियायते) = बुद्धिपूर्वक कर्मों को करने की इच्छा करता है । सोम के रक्षित होने पर बुद्धि का वर्धन होता है और शरीर में स्फूर्ति आती है। इस प्रकार हम बुद्धिपूर्वक कर्मों को करनेवाले बनते हैं । [२] यह सोम (बृहते) = वृद्धि के कारणभूत (देवतातये) = दिव्य गुणों के विस्तार के लिये होता है । सोमरक्षण से आसुरी वृत्तियों का विनाश होकर दैवीवृत्तियों का प्रादुर्भाव होता है । [३] यह सोम वह है (यत्र) = जिसमें (आमृतासः) = सब नीरोगतायें (आसते) = आसीन होती हैं। अर्थात् सोम के रक्षित होने पर शरीर में किसी प्रकार का रोग नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण करनेवाला पुरुष बुद्धिपूर्वक कर्म करता है, अपने अन्दर दिव्य गुणों का विस्तार करता है तथा नीरोगता को प्राप्त करता है |

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    विषय

    उसका लोक हितार्थ कार्य।

    भावार्थ

    (एषः) यह (बृहते) बड़े भारी (देव-तातये) विद्वानों के हित साधनार्थ (पुरु) बहुत अधिक (धियायते) ज्ञान सम्पादन तथा कार्य करना चाहता है। (यत्र) जिसके आश्रय (अमृतासः) सब अमर के समान (आसते) जीवित जागृत रूप में सुख से रहते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३ - ५, ८ निचृद गायत्री। २, ६ गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This infinite and eternal Spirit of peace, love and joy is ever keen to bless humanity with boundless piety and divinity in which men of immortal knowledge, karma and divine love abide.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा अनंतकर्मा आहे. त्याच्या शक्तीला पारावार नाही. याच अभिप्रायाने म्हटले आहे. ‘तस्मिन्दृष्टे परावरे’ त्या ब्रह्माला जाणल्यावर हृदयाची ग्रंथी खुलते. या दृष्टीनेच ‘परास्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते’ इत्यादी वाक्यात उपनिषदकार ऋषींनीही म्हटले आहे की त्याच्या शक्ती असंख्य आहेत. त्याला जाणून माणूस अमृत पदाचा लाभ घेऊ शकतो. अन्यथा नाही. ॥२॥

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