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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अन॑प्तम॒प्सु दु॒ष्टरं॒ सोमं॑ प॒वित्र॒ आ सृ॑ज । पु॒नी॒हीन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन॑प्तम् । अ॒प्ऽसु । दु॒स्तर॑म् । सोम॑म् । प॒वित्रे॑ । आ । सृ॒ज॒ । पु॒नी॒हि । इन्द्रा॑य । पात॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनप्तमप्सु दुष्टरं सोमं पवित्र आ सृज । पुनीहीन्द्राय पातवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनप्तम् । अप्ऽसु । दुस्तरम् । सोमम् । पवित्रे । आ । सृज । पुनीहि । इन्द्राय । पातवे ॥ ९.१६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! भवान् (पवित्रे) श्रेष्ठजनाय (सोमम्) सोमरसम् उत्पादयतु यः (अनप्तम्) क्रूरकर्मभिः अप्राप्यं (अप्सु) यस्य संस्कारः दुग्धेषु क्रियते अन्यच्च (दुस्तरम्) आसुरसम्पत्तिमद्भिः दुस्तरमस्ति (इन्द्राय) कर्मयोगिनः (णः) (पातवे) पानाय उक्तविधं रसं भवान् उत्पादयतु ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप (पवित्रे) श्रेष्ठ लोगों के लिये (सोमम्) सोम रस को उत्पन्न करो, जो (अनप्तम्) क्रूरस्वभाववालों के लिये अप्राप्य है और (अप्सु) जिसका संस्कार दूध में किया जाता है और जो (दुस्तरम्) आसुरी सम्पत्तिवालों के लिये दुस्तर है, (इन्द्राय) कर्मयोगी के (पातवे) पीने के लिये ऐसे रस को तुम पवित्र बनाओ ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों ! तुम दैवी सम्पत्ति के देनेवाले अर्थात् सौम्य स्वभाव के बनानेवाले सोम रस की प्रार्थना करो, ताकि तुम कर्मयोगियों को कर्मों में तत्पर करने के लिये पर्याप्त हो ॥ तात्पर्य यह है कि जो पुरुष अन्नादि ओषधियों के रसों का पान करके अपने कामों में तत्पर होते हैं, वे पूरे-२ कर्मयोगी बन सकते हैं और जो लोग मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं, वे अपनी इन्द्रियों की शक्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करके स्वयं भी नाश को प्राप्त हो जाते हैं ॥३॥

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    विषय

    अनप्तं दुष्टरम्

    पदार्थ

    [१] (अनप्तम्) = [शत्रुभिरनाप्तम् सा०] शत्रुओं से न प्राप्त करने योग्य, सोम के शरीर में सुरक्षित होने पर रोगकृमि आदि शत्रु इस पर आक्रमण नहीं कर सकते। (अप्सु) = कर्मों में (दुष्टरम्) = [दुःखेन तरितुं योग्यं] विघ्नादि से जो अभिभवनीय नहीं। सोम का रक्षक पुरुष जब कर्म में प्रवृत्त होता है, तो कोई भी विघ्न उसे रोकनेवाला नहीं होता। ऐसे (सोमम्) = सोम को (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (आसृज) = समन्तात् सृष्ट करनेवाला हो । हृदय की पवित्रता के होने पर सोम का रक्षण होता है। यह रक्षित सोम रोगकृमिरूप शत्रुओं को शरीर गृह में नहीं आने देता और हमें सब कर्मों में निर्विघ्नता पूर्वक सफल बनाता है। [२] (पुनीहि) = इसे पवित्र करो। इसमें मलिन वासनाओं के उबाल को न पैदा होने दो। यह (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (पातवे) = पीने के लिये हो । जितेन्द्रिय पुरुष इसे शरीर में सुरक्षित करनेवाला बने । रक्षित होकर यह उसका रक्षण करनेवाला बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हृदय को पवित्र करके हम सोम का रक्षण करें। यह रोगकृमिरूप शत्रुओं से अभिभवनीय नहीं होता, यह विघ्नों से असफल नहीं बनाया जाता। जितेन्द्रिय पुरुष से रक्षित हुआ- हुआ यह उसका रक्षण करता है।

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    विषय

    शासक के पवित्र पद के योग्य पुरुष के आवश्यक गुण, सर्वोपरि अजेय होना।

    भावार्थ

    (अनप्तम्) शत्रुओं या सामान्य प्रजाओं से अप्राप्त अर्थात् उनकी पहुंच से बाहर, सर्वातिशायी अथवा (अनप्तम्) बन्धनरहित, (अप्सु दुस्तरं) अन्तरिक्षवत् प्रजाओं में सब से अधिक अजेय, गम्भीर पुरुष को (पवित्रे) परम पवित्र पद पर (आ सृज) स्थापित करो। और उसको (इन्द्राय पातवे) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र के पालन करने के लिये (पुनीहि) अभिषिक्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That rare soma joy of divinity rolling in existence, achievable but with relentless practice across trials and tribulations, O man, create in the purity of heart and sanctify for enlightenment of the soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो की हे माणसांनो! तुम्ही दैवी संपत्ती देणाऱ्या अर्थात सौम्य स्वभाव बनविणाऱ्या सोमरसांची प्रार्थना करा. त्यामुळे तुम्ही कर्मयोग्यांना कर्मात तत्पर करण्यासाठी पर्याप्त आहात.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे की जे पुरुष अन्न इत्यादी औषधींच्या रसाचे पान करून आपल्या कार्यात तत्पर असतात ते पूर्णपणे कर्मयोगी बनू शकतात. जे लोक मादक द्रव्यांचे सेवन करतात ते आपल्या इंद्रियांच्या शक्तींना नष्ट भ्रष्ट करून स्वत:चाही नाश करून घेतात. ॥३॥

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