ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र पु॑ना॒नस्य॒ चेत॑सा॒ सोम॑: प॒वित्रे॑ अर्षति । क्रत्वा॑ स॒धस्थ॒मास॑दत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । पु॒ना॒नस्य॑ । चेत॑सा । सोमः॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । क्रत्वा॑ । स॒धऽस्थ॑म् । आ । अ॒स॒द॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पुनानस्य चेतसा सोम: पवित्रे अर्षति । क्रत्वा सधस्थमासदत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । पुनानस्य । चेतसा । सोमः । पवित्रे । अर्षति । क्रत्वा । सधऽस्थम् । आ । असदत् ॥ ९.१६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(चेतसा प्र पुनानस्य) चित्तं पवित्रीकुर्वाणस्य द्रव्यस्य यः (सोमः) सोमरसोऽस्ति सः (पवित्रे) सत्कर्मसु ज्ञानमुत्पादयति ततः स मनुष्यः (क्रत्वा) शुभकर्माणि कृत्वा (सधऽस्थम्) सद्गतिं (आसदत्) प्राप्नोति ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(चेतसा प्र पुनानस्य) चित्त को पवित्र करनेवाले द्रव्य का जो (सोमः) सोमरस है, वह (पवित्रे अर्षति) पवित्र लोगों में ज्ञान को उत्पन्न करता है, फिर वह मनुष्य (क्रत्वा) शुभकर्मों को करके (सधऽस्थम्) सद्गति को (आसदत्) प्राप्त होता है ॥४॥
भावार्थ
सोमरस, जो कि पवित्र और सुन्दर द्रव्यों से निकाला गया है अर्थात् जो स्वभाव को सौम्य बनाता है, उसका रस मनुष्य में शुभ बुद्धि को उत्पन्न करता है ॥४॥
विषय
ज्ञान के द्वारा पवित्रता
पदार्थ
[१] (चेतसा) = ज्ञान के द्वारा (पुनानस्य) = अपने जीवन को पवित्र करते हुए व्यक्ति का (सोमः) = सोम [वीर्य] (पवित्रे) = पवित्र हृदय में (प्र अर्षति) = प्रकर्षेण प्राप्त होनेवाला होता है। हृदय की पवित्रता के होने पर सोम शरीर में सुरक्षित रहता है । [२] (क्रत्वा) = इस सोमरक्षण से प्राप्त शक्ति के द्वारा (सधस्थम्) = प्रभु के साथ एकत्र वास को (आसदत्) = प्राप्त होता है । सोमरक्षण से जीव अपने पवित्र हृदय में प्रभु के प्रकाश को देखता है। यही प्रभु के साथ एक स्थान में स्थित होना है । ' नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः 'यह आत्मा निर्बल से लभ्य नहीं है। सोम हमें बल प्राप्त कराता है और प्रभु के मेल का अधिकारी बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान में लगे रहने से हम विषयों से बचे रहते हैं, इस प्रकार हमारा जीवन पवित्र रहता है और हम प्रभु का दर्शन करनेवाले होते हैं।
विषय
उसकी सभा-भवन में सभाध्यक्ष पर स्थिति।
भावार्थ
(पुनानस्य) अभिषेक करने वाले प्रजा जन के (चेतसा) चित्त के साथ २ (सोमः) अभिषेक योग्य युवा, विद्वान्, वीर्यवान् पुरुष (पवित्रे) अन्यों को पवित्र करने के कार्य में (अर्षति) प्राप्त होता है, और उसी के (क्रवा) ज्ञान, सामर्थ्य, राज्य-शासन के पवित्र पद से (सधस्थम्) एकत्र बैठने के स्थान सभा भवन में (आसदत्) विराजे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The soma joy of the person who is purified through the mind and intellect abides in the purity of heart, and by virtue of his karma he attains his position in the presence of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जो सोमरस पवित्र व सुंदर द्रव्यांपासून काढलेला आहे, जो स्वभावाला सौम्य बनवितो त्यांचा रस माणसांमध्ये पवित्र बुद्धी उत्पन्न करतो. ॥४॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal