ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 16/ मन्त्र 8
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वं सो॑म विप॒श्चितं॒ तना॑ पुना॒न आ॒युषु॑ । अव्यो॒ वारं॒ वि धा॑वसि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सो॒म॒ । विपः॒ऽचित॑म् । तना॑ । पु॒ना॒नः । आ॒युषु॑ । अव्यः॑ । वार॑म् । वि । धा॒व॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सोम विपश्चितं तना पुनान आयुषु । अव्यो वारं वि धावसि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । सोम । विपःऽचितम् । तना । पुनानः । आयुषु । अव्यः । वारम् । वि । धावसि ॥ ९.१६.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 16; मन्त्र » 8
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 8
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सौम्यस्वभाव परमात्मन् ! त्वं (आयुषु) मनुष्येषु (विपःऽचितम् तना) विद्वांसं सम्यक् प्रकारेण (पुनानः) पवित्रीकुर्वाणः (अव्यः) रक्षार्थम् (वारम्) उक्तवरीतारं विद्वांसं (वि धावसि) प्राप्नोषि ॥८॥ षोडशं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सौम्यस्वभाव परमात्मन् ! (त्वम्) आप (आयुषु) मनुष्यों में (विपःऽचितम् तना) विद्वान् को भली-भाँति (पुनानः) पवित्र करते हुए (अव्यः) रक्षा के लिये (वारम्) उस वरणशील को (वि धावसि) प्राप्त होते हो ॥८॥
भावार्थ
जो पुरुष परमात्मा का वरण करता है अर्थात् एकमात्र उसी पर विश्वास रखकर उसी को उपास्य देव ठहराता है, उसकी परमात्मा अवश्यमेव रक्षा करता है। वार शब्द का अर्थ यहाँ यह है कि ‘वृणुते इति वारः’ जो वरण करे, वह वार है। इसी प्रकार ‘सूते चराचरं जगदिति सोमः’ इस मन्त्र में सोम के अर्थ परमात्मा के हैं। तात्पर्य यह है कि उक्त परमात्मा की उपासना करनेवाला पुरुष सदैव कृतकार्य होता है, क्योंकि परमात्मा उसका रक्षक होता है, इसलिये उपासक के लिये परमात्मपरायण होना आवश्यक है ॥८॥ यह सोलहवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सब वरणीय वस्तुओं की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (त्वम्) = तू (विपश्चितम्) = ज्ञानी पुरुष को (तना) = शक्तियों के विस्तार के द्वारा (पुनानः) = पवित्र करता है। [२] (अव्यः) = रक्षकों में उत्तम तू (आयुधु) = गतिशील मनुष्यों में [एति इति आयुः] (वारम्) = वरणीय वस्तुओं को (विधावसि) = विशेष रूप से प्राप्त कराता है। सोम के रक्षण के होने पर सब वस्तुओं की प्राप्ति होती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमें सशक्त व पवित्र बनाकर सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराता है। अगले सूक्त का विषय भी सोमरक्षण ही है-
विषय
अधीन पर अनुशासन।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शासक ! बल-वीर्यशालिन् ! (त्वं) तू (आयुषु) मनुष्यों के ऊपर (तना) धन के द्वारा (विपश्चितम्) ज्ञान और कर्म में कुशल पुरुष को (पुनानः) अभिषिक्त करता हुआ (अव्यः) भूमि या राष्ट्र के रक्षक पद के (वारं) वरण करने योग्य पद को (वि धावसि) विविध प्रकार से प्राप्त होता है। इति षष्ठो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः— १ विराड् गायत्री। २, ८ निचृद् गायत्री। ३–७ गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, lord of peace, joy and glory, you purify the wise among general humanity and move continuously to the man of choice for the sake of protection and advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
जो पुरुष परमेश्वराचे वरण करतो अर्थात केवळ त्याच्यावर विश्वास ठेवून त्यालाच उपास्य देव समजतो त्याचे परमेश्वर अवश्य रक्षण करतो. वार शब्दाचा अर्थ येथे हा आहे की ‘‘वृणुते इति वार:’’ जो वरण करतो तो वार आहे. याच प्रकारे ‘‘सुते चराचरं जगदिति सोम:’’ या मंत्रात सोमचा अर्थ परमात्मा आहे.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की वरील परमेश्वराची उपासना करणारा पुरुष सदैव कृतकार्य होतो कारण परमेश्वर त्याचा रक्षक असतो. त्यामुळे उपासकासाठी परमात्मपरायण होणे आवश्यक आहे. ॥८॥
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