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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 22/ मन्त्र 7
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं सो॑म प॒णिभ्य॒ आ वसु॒ गव्या॑नि धारयः । त॒तं तन्तु॑मचिक्रदः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । सो॒म॒ । प॒णिऽभ्यः॑ । आ । वसु॑ । गव्या॑नि । धा॒र॒यः॒ । त॒तम् । तन्तु॑म् । अ॒चि॒क्र॒दः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सोम पणिभ्य आ वसु गव्यानि धारयः । ततं तन्तुमचिक्रदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । सोम । पणिऽभ्यः । आ । वसु । गव्यानि । धारयः । ततम् । तन्तुम् । अचिक्रदः ॥ ९.२२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 22; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (त्वम्) भवान् (पणिभ्यः) दुष्टेभ्यः (वसु गव्यानि) अखिलपार्थिवरत्नानि (आ धारयः) सम्यक् आदत्ते तथा (ततम् तन्तुम्) वर्धितं कर्मरूपयज्ञं (अचिक्रदः) प्रख्यापयति ॥७॥ द्वाविंशं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (त्वम्) आप (पणिभ्यः) दुष्टों से (वसु गव्यानि) सम्पूर्ण पृथिवीसम्बन्धी रत्नों का (आ धारयः) अच्छी प्रकार ग्रहण करते हो और (ततम् तन्तुम्) बढ़े हुए कर्मात्मक यज्ञ का (अचिक्रदः) प्रचार करते हो ॥७॥

    भावार्थ

    इस सूक्त की समाप्ति करते हुए अर्थात् इस अगाध रचियता का वर्णन करते हुए परमात्मा रुद्ररूप का वर्णन करके इस सूक्त का उपसंहार करते हैं ‘रोदयति राक्षसानिति रुद्रः’ जो अन्यायकारी राक्षसों को रुला दे, उसका नाम यहाँ रुद्र है। वह रूद्ररूप परमात्मा अन्यायकारी दुष्ट दस्युओं से धन जन और राज्य श्री का अपहरण कर लेता है और न्यायकारी दान्त शान्त देवताओं को प्रदान कर देता है, इसी का नाम देवासुर-संग्राम है और इसी का नाम दैवी और आसुरी सम्पति है।देवासुर संग्राम है और इसी का नाम दैवी और आसुरी सम्पत्ति है। यह व्यवहार परमात्मा की विविध रचना में घटीयन्त्र के समान सदैव होता रहता है। जिस तरह घटीयन्त्र अर्थात् रहट के पात्र जो कभी भरे हुए होते हैं, वे ही ऊँचे चढ़ कर गर्व करते हुए सर्वथा रीते हो जाते हैं और जो रीते हो जाते हैं, वे ही विनय और नम्रता करते हुए भर जाते हैं अर्थात् परिपूर्ण हो जाते हैं वेही नियम और नम्रता करते हुए भर जाते हैं अर्थात् परिपूर्ण हो जाते हैं, इस लिए सदैव परमात्मा की विनयभाव से पूर्ण होने की अभिलाषा प्रत्येक अभ्युदयाभिलाषी को करनी चहिये ॥७॥ यह बाईसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    'वसु व गव्य' की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (त्वम्) = तू (पणिभ्यः) = स्तोताओं के लिये (वसु) = निवास के लिये आवश्यक तत्त्व को (आधारयः) = शरीर में समन्तात् धारण करता है। प्रभु-स्तवन से हम वासनाओं से बचे रहते हैं, और इस प्रकार सोम सुरक्षित रहता है। यह सुरक्षित सोम हमारे शरीर में रोगकृमियों को नहीं पनपने देता। हमारा शरीर निवास के लिये आवश्यक शक्तिरूप धन से युक्त रहता है। [२] हे सोम ! तू इन स्तोताओं के लिये (गव्यानि) = [ धारयः ] वेदवाणी रूप गौ के उत्तम ज्ञानदुग्धों को धारण करता है । सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और जो (ततम् तन्तुम्) = इस संसार के तन्तुओं को (अचिक्रदः) = संचारित करता है । उसकी उस दीप्त ज्ञानाग्नि से हम ज्ञान के प्रकाश को पानेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें शारीरिक वसुओं व मस्तिष्क की ज्ञानरश्मियों [गव्य] को प्राप्त कराता है। सूक्त का भाव यह है कि सुरक्षित सोम हमें अन्ततः ब्रह्मलोक को प्राप्त कराता है। अगला सूक्त भी इसी भाव का द्योतक है—

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    विषय

    सर्वसञ्चालक प्रभु।

    भावार्थ

    हे (सोम) जगद्-उत्पादक ! सर्वप्रेरक प्रभो ! (त्वं) तू (पणिभ्यः) लोकव्यवहार में इन जीवों के लिये (गव्यानि वसु आ धारयः) भूमि के तथा इन्द्रियों से उपभोग्य वाणी से कहने योग्य समस्त ऐश्वर्यों को सब ओर से प्राप्त कराता है और तू ही (ततं तन्तुम्) तन्तु के समान फैले इस जगत् को (अचिक्रदः) संचालित करता है। इति द्वादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, २ गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४-७ निचृद गायत्री॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, peace, purity and wealth of existence, you alone bear and bring the Word, peace of settlement and wealth of culture and enlightenment for humanity, and you turn the wheel of existence, proclaim it with a boom and the web begins to spin out and in.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या अगाध रचनाकाराच्या रचनेचे वर्णन करत परमात्म्याच्या रूद्र रूपाचे वर्णन करून या सूक्ताचा उपसंहार करत आहे ‘रोदयति राक्षसानिति रुद्र:’ जो अन्यायकारी राक्षसांना रुदन करावयास लावतो त्याचे नाव येथे रुद्र आहे. तो रुद्ररूप परमात्मा अन्यायकारी दुष्ट-दस्युकडून धन, जन व राज्यश्रीचे अपहरण करतो व न्यायकारी मृदु व शांत देवतांना ते प्रदान करतो याचेच नाव देवासूर संग्राम आहे व याचेच नाव दैवी व आसुरी संपत्ती आहे. हा व्यवहार परमेश्वराच्या विविध रचनेत रहाटगाडग्याप्रमाणे सदैव चालू असतो. ज्या प्रमाणे घटीयंत्र राहाटाचे पात्र कधी भरलेले असतात उंच स्थानी गेल्यावर गर्वोन्वित होतात व जे रिकामे होतात ते विनयाने व नम्रतेने भरले जातात. परिपूर्ण होतात. त्यासाठी अभ्युदय इच्छुकांनी नम्रतेने परमेश्वराजवळ परिपूर्ण बनण्याची अभिलाषा बाळगली पाहिजे. ॥७॥

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